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समझेगा कि पैसा किसको कहते हैं? मेहनत किसको कहते हैं? कमाया कैसे जाता है? केरियर कैसे बनाया जाता है? व्यक्तित्व के निर्माण के लिए कितनी ठोकरें खाई जाती हैं? किस-किसके आगे जी-हुजूरी करनी पड़ती है। किस-किसको कितना तेल लगाया जाता है, यह आदमी तब वह सीखेगा।
अंडे में बच्चा नहीं बनता, बच्चा तो बाद में बनता है। माँ के पेट से शरीर का जन्म होता है। जिंदगी का निर्माण तो जीवन में लगने वाली ठोकरों से हुआ करता है। जिस आदमी को जिंदगी में जितनी ठोकरें लगीं वह आदमी उतना ही पका। जिस घड़े में जितनी बार पानी डाला गया वह घड़ा उतना ही तो पका। अगर आपको लगता है कि अमुक आदमी का पिता जल्दी चल बसा और आज वह चौंतीस साल का है तो समझ लेना इस आदमी में बड़ा दम है क्योंकि वह अपने बलबूते पाँव पर खड़ा हुआ है। खुद का बलबूता कठिन है, इसलिए कहता हूँ कामयाबी कोई मंज़िल नहीं है, यह सफ़र है और हमें इसे सफ़र मानते हुए पूरा करना चाहिए।
ऐसा हुआ, कुछ समय पहले की बात है। मैं एक कॉलेज के दीक्षान्त समारोह में शरीक हुआ। पारितोषिक वितरण होना था और उनका आग्रह था कि उनके इस समारोह में मैं अपन हाथों से सारे बच्चों को पारितोषिक दूँ। क़रीब दो हज़ार छात्रछात्राएँ बैठे हुए थे और लगभग डेढ़ घंटे के कार्यक्रम के बाद जब मुझे बोलने के लिए कहा गया तो पता नहीं उस दिन मुझे क्या बात अँची कि मैंने कहा - आज मैं बोलूँगा नहीं, आज कुछ करूँगा। जब यह कहा तो बच्चों में उत्सुकता जग गई। मैंने देखा कि सामने ही एक काँच का बड़ा बर्तन पड़ा था। मैंने काँच के उस बर्तन को अपने पास मंगवाया। मैंने कुछ छात्रों से कहा – 'वो देखो, सामने पत्थर पडे हैं, वे पत्थर उठाकर इसमें डाल दो। सावधानी से डालना, काँच का बर्तन है, कहीं फूट न जाए।' उन्होंने पत्थर उठाकर सावधानी से भर दिए। मैंने कहा, तब तक भरते रहो जब तक तुम्हें गुंजाइश लगती है। पूरे के पूरे पत्थर इसमें डाल दो। काँच का बर्तन पूरा भर चुका है। मैंने कहा - 'देखो, कहीं कोई गुंजाइश हो, तो डाल दो'। उन्होंने कहा - सर! इसमें अब कोई भी गुंजाइश नहीं है।
मैंने दो और छात्रों को बुलाया और कहा – 'देखो, क्या इसमें और पत्थर डाले जा सकते हैं?' वे बोले, सर! अब इसमें और पत्थर नहीं डाले जा सकते, अब यह पूरा भर गया है। पीछे से मैंने दो और छात्रों को बुलाया और कहा – ' एक काम
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