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'भगवान् अणु-प्रतिअणु मुझे सत्य देख रहे हैं, सत्य कह रहे हैं ।'
'तुझे नींद नहीं आती, वत्स । तू सर्पगन्धा की गुटिका खा कर सोता है । तेरा वृद्ध शरीर जर्जर और हतवीर्य हो गया है, फिर भी तेरी भोग- लालसा का पार नहीं । नग्न रूप यौवन को देख कर भी तेरी वासना नहीं जागती । फिर भी तेरी काम-लिप्सा का अन्त नहीं । तेरे अन्तःपुर में तमाम वर्तमान देशों की अपहरिता सुन्दरियाँ और कुमारियाँ बिसूर रही हैं । तेरे रनिवास और हर्म्य नारियों के माल गोदाम हैं । लेकिन तू निःसत्व, नपुंसक और क्लीव है। तू स्त्रैण कापुरुष है । परवशता के इस अछोर आलजाल में तुझे नींद कैसे आये, राजन् ! '
राजा का रोष सीमा तक उठ कर, रुलाई में फूट पड़ा :
'त्रिलोकी नाथ, महाकारुणिक प्रभु, मुझे इतना निर्वसन न करें। मुझे इतना न गिरायें। मुझे अपनी शरण में ले कर, अपने योग्य बना लें ? '
'निर्वसन न करूँ, तो तू अपने को कैसे देखे, कैसे पहचाने ? तेरे कल्मष का रेचन न करूँ तो तुझ में अमृत का सिंचन कैसे हो ? तुझे गिराने वाला मैं कौन ? तू तो स्वयम् ही गिर कर, अन्धकार के अतल पाताल में पड़ा कराह रहा है। अर्हत् गिराने नहीं, उठाने आये हैं । तू जिस चरम पर गिरा पड़ा है, वह न दिखाऊँ, तो तू कैसे जागे, कैसे उठे । उठना तुझे स्वयम् होगा, अन्य कोई तुझे नहीं उठा सकता । अर्हत् केवली तेरी स्थिति के केवल अविकल दर्पण हो सकते हैं। अपनी त्रासदी को सम्पूर्ण साक्षात् कर, और जाग, जाग, जाग, देवानुप्रिय ।'
राजा इस अन्तिम आक्रमण से हताहत हो, ढेर हो गया । वह धप् नीचे बैठ दोनों हाथों में मुँह ढँक कर सिसकने लगा । देवी मल्लिका का जी बहुत कातर हुआ, कि वे अपने स्वामी को सहेज लें। लेकिन उनका साहस न हुआ कि वे परम-शरण त्रिलोकीनाथ के सम्मुख होते, उसे सहारा दें । स्वयम् सर्वावलम्बन् प्रभु जिसे निरालम्बन् कर रहे हैं, उसे आलम्बन् कौन दे सकता है ?
हठात् श्री भगवान् ने फिर राजा को सम्बोधन किया :
'विषाद की इस महा मोहरात्रि का भेदन इतना सहज नहीं, राजन् । तुझे अपने जिये और किये को, इस क्षण फिर से एक साथ पूरा जी जीना होगा। देख, अपने जीवन- नाटक का अखण्ड पुनरावर्तन देख" । खड़ा हो जा वत्स, और देख, सुन, समझ, जो सम्मुख आये । '
राजा को जैसे बिजली का जीता तार छू गया । वह उठ कर सन्नद्ध खड़ा हो गया ।
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