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________________ बाद उसकी पुत्र-वधू बोली कि मैं तो विधवा हो गई। तब सेठ ने अपने पुत्र को पत्र लिखा कि हे पुत्र, तेरी बहू विधवा हो गई है। तब श्रेष्ठि-पुत्र यह पत्र पढ़ कर शोक करने लगा। तभी किसी ने पूछा : तू क्यों शोक करता है ? तब उसने कहा : मेरी स्त्री विधवा हो गई है। सुन कर पूछनेवाले ने कहा : तू तो सामने जीता-जागता खड़ा है, फिर तेरी स्त्री विधवा कैसे हो गई ? श्रेष्ठि-पुत्र बोला : तुम कहते हो सो तो सत्य है, पर मेरे पिता का पत्र आया है, उसमें यह समाचार आया है, उसे झूठ कैसे मानूं । अपने ही समक्ष खड़ी मल्लिका को काश, तू पहचान सकता, राजन् ।' ___ 'मैं प्रतिबुद्ध हुआ, भन्ते । मैं श्रीचरणों में अपने को उपस्थित पाता हूँ, नाथ !' 'तू प्रतिबद्ध नहीं हुआ, वत्स । तू अभी स्वयम् में उपस्थित नहीं, राजन् । तू अब भी काँप रहा है। अर्हन्त को शब्द-छल प्रसन्न नहीं कर सकता। अपनी वेदना का खुलकर रेचन होने दे, सौम्य ।' 'सम्यक् सम्बुद्ध अर्हन्त मेरे मर्म की पीड़ा में से बोल रहे हैं। मेरी एकएक ग्रंथि खोल रहे हैं।' 'अपनी पीड़ा का निवेदन कर, आयुष्यमान् ।' 'मैं दिन-रात भय में जीता हूँ, भन्ते। सब कुछ कितना अनिश्चित है। कभी भी, कुछ भी हो सकता है। ऐसी अनिश्चिति में कैसे जिऊँ, स्वामिन् ?' ___ 'जो कभी भी कुछ भी हो सकता है, उसकी हर सम्भावना को अभी और यहाँ साक्षात् कर। क्षय, जरा, शोक, वियोग, अपमान, पराजय, प्रहार, प्रताड़ना, प्रलय, मौत-हर सम्भव दुःख को अभी और यहाँ जी जा। उस सब में से इसी वक्त, उसके छोर तक गुजर जा। और उसका अन्त हो जायेगा सदा के लिये। अनन्त है केवल जीवन, तू स्वयम्, तेरा आत्म। अपने उस त्रिकाली ध्रुव में अवस्थित हो जा। तब अनिश्चित कुछ न रह जायेगा। सब निश्चित हो जायेगा। सब कुछ निश्चित और अनिवार्य है। यही स्वभाव है, यही वस्तु-स्थिति है, फिर भय किस बात का ?' 'इस भय का मूल कहाँ है, भन्ते ? यह भय क्यों है, स्वामिन् ?' 'क्यों कि तू अपने में नहीं, अन्यों में जीता है। तू स्व में नहीं, पर में जीता है। पर में जीकर तू कैसे निश्चित और निश्चिन्त जी सकता है। जो अपने में जीता है, वही निश्चित, निश्चल और निश्चिन्त जीता है। वही सुख की नींद सो सकता है। अन्यों के अपार अज्ञात जंगल में खो कर विश्राम कहाँ ?' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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