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प्रहार किया। उस बेचारी स्त्री का हाथ कट गया और लहू बह आया। और ठीक उसी समय उस परनारी-भोगी का वीर्य स्खलित हो गया। वह चौंक कर जाग उठा, तो पाया कि रुधिर वहाँ किसी का नहीं बहा था, उसका अपना ही अधोवस्त्र, उसके अपने ही वीर्य से लिप्त हो गया था।'
और सहसा ही भगवान् चुप हो गये। कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। तभी एकाएक प्रसेनजित का डूबा-डूबा कातर कण्ठ-स्वर सुनाई पड़ा :
'भगवन्, पहली बार अपनी त्रासदी को आरपार नग्न देख रहा हूँ। लेकिन मेरी व्यथा हज़ार गुनी हो कर उभर रही है।' ___और भी देख वत्स, एक मनुष्य को कीचड़ में से, एक रत्न-जवाहर से भरा कलश मिल गया। तब वह उस कलश को एक बावली में धोने ले गया। वहाँ धोते-धोते कलश हाथ से छूट कर बावली में डूब गया। वह रोनेकलपने लगा।"तू पाप के डर से 'आपको' भय और ग्लानि के जल से धोना चाहता है ? तो 'आप' ही हाथ से निकल कर अन्ध-कूप में खो जायेगा।
'सुन राजन्, अपने स्वरूप को सुन। तस्वीर से तस्वीर उतर सकती है। एक वट-वृक्ष के बीच अनेक वट-वृक्ष हैं। और उन अनेक न्यग्रोधों (वटों) में अनन्तानन्त बीज हैं। एक सन्नीपात ग्रस्त व्यक्ति अपने ही घर में लेटा चिल्ला रहा है : मुझे अपने घर जाना है ! एक शेखचिल्ली की पगड़ी उसके माथे से गिर पड़ी, उसे उठा कर वह बोला : अरे मुझे एक मनचाही पगड़ी मिल गई। बाँस से बाँस रगड़ खाता है, और उससे उत्पन्न अग्नि, उन बाँसों को भस्म कर स्वयम् भी उपशान्त हो जाती है। शंख श्वेत है, पर वह काली-पीली-लाल माटी भक्षण करता है, फिर भी शंख स्वयम् तो श्वेत ही रहता है । केवल अपने भीतर के जातरूप, श्वेत, स्वयम्भू शंख को देख, राजन् !'
'देख कर भी नहीं देख पा रहा, नाथ। एक पर्दा उठता है, कि फिर एक और काला पर्दा मेरी आँखों पर आ गिरता है। मुझे अपना नाम-पता और घर ही भूल गया है, स्वामिन् । मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ ?'
'यह 'मैं' कौन है, जो अपना नाम-पता और घर भूल गया है ? या तो इसी को पकड़ ले, या इसको भुला दे, और चुप हो जा। तो जानेगा कि जो बचा है, वही तू है। अपना घर, नाम, पता-अन्यत्र कहाँ खोज रहा है ? अभी और यहाँ तू जो उपस्थित है, बस, केवल वही रह जा।'
'मैं अनुपस्थित हूँ, भगवन, आपसे बहुत दूर किसी वीरान में भटक रहा हूँ। मैं निरा प्रेत हूँ। मैं हूँ ही नहीं, नाथ ।'
'तेरा यह अज्ञानी बाल्य भाव भी मुझे प्रिय है, राजन् ! तो बालक, एक कहानी सुन । एक साहुकार ने अपने पुत्र को परदेश भेजा। कुछ दिनों
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