________________
मल्लिका को लगा कि वह स्वयम् नहीं रही, कोई तीसरी सत्ता हो गई है। उसकी आँखों से आँसू फूट आये।
'देखो, इसकी आँखों से श्रीचरणों में मल्लिका के फूल झड़ रहे हैं। इसके अंग-अंग में नव-मल्लिका की पुष्पित लताएँ लचक रही हैं। इसके नैवेद्य से अर्हत् आप्यायित हुए।'
फिर एक गहरा मौन छा गया। मल्लिका का शरीर कपूर की आरती हो कर गलता ही चला गया।
'कोशलराज प्रसेनजित !'
काँपता-थरथराता प्रसेनजित श्रीपाद में उपस्थित हो कर, भान-भूला-सा खड़ा रह गया। अपराधी अभियुक्त की तरह, सर झुकाये। .
'निर्भय होजा, राजन् !' 'कैसे प्रभु ? आप से अब क्या छुपा है !' । 'निश्चल होजा, आयुष्यमान्, और देख, जान, कि तू कौन है।' 'जो हूँ, सो तो देख रहा हूँ। मेरे पापों का अन्त नहीं, नाथ !'
'तो जो है, जहाँ है, वहीं रह कर निश्चल हो जा। और तू देखेगा, कि तू पाप नहीं, आप है। अनन्य एकमेव तू, कोई तीसरी ही सत्ता। जो मैं भी नहीं, तू भी नहीं, यह भी नहीं, वह भी नहीं। बस, जो है केवल, सो है।'
'मेरी मनोवेदना को आज तक कोई न जान सका। क्या आप भी उसे अनदेखा करेंगे, भगवन् ?
तेरी मनोवेदना को हस्तामलकवत् देख रहा हूँ, वत्स। देख राजा, देख : काँच के महल में श्वान अपना ही प्रतिबिम्ब देख कर भूक रहा है। स्फटिक की भींत में हाथी अपनी ही प्रतिछाया देख कर, उस पर टक्कर मार रहा है, अपना मस्तक पछाड़ रहा है। और अपने सुन्दर दाँत तोड़ कर दुखी और बेहाल है। ___ 'और भी देख आयुष्यमान्, रात के समय एक बन्दर किसी विशाल वृक्ष पर बैठा है। वृक्ष तले एक सिंह आया। चन्द्रमा की चाँदनी में सिंह को उस वानर की छाया दीखी। उस छाया को ही उसने सच्चा बन्दर जान कर गर्जना की, और उस वानर-छाया पर पंजा मारा। तब वृक्ष पर बैठा वानर भयभीत हो कर नीचे गिर पड़ा। देख वत्स, इस भयभीत प्रसेनजित को देख ।...
'और भी एक रूप अपना देख, आयुष्यमान् । एक पर-स्त्री लंपट को सपना आया कि वह अपनी दुर्लभ परनारी-प्रिया को भोग रहा है। तभी उसका प्रतिपक्षी शत्रु आया। उसने उस परस्पर-बिद्ध मिथुन पर तलवार का
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org