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राजा और रानी एक दूसरे को देखते ही रह गये । एक साथ छहों ऋतुओं के फूलों और फलों की गन्ध आकाश -वातास में व्याप गई है । राजा के मुँह से फिर बरबस फूट पड़ा :
'ओह, कितना प्रियंकर है यह महावीर ! फिर भी कितना भयंकर ! ' अपने प्रिय को निहारती मल्लिका की आँखों में आँसू उजल आये ।
आगे-आगे महारानी मल्लिका चल रही हैं । उनके पीछे हैं कोशलेन्द्र प्रसेनजित । और उनका अनुगमन कर रहे हैं, उनके तमाम मंत्रीश्वर, महामात्य, सेनापति, और श्रावस्ती के जगत् विख्यात धन-कुबेर सुदत्त अनाथ - पिण्डक और मृगार श्रेष्ठ ।
समवसरण का ऐश्वर्य और प्रभुता देख कर, कोशलेन्द्र के अभिमान का वज्र पानी हो गया । श्रीमण्डप में पहुँच कर, प्रसेनजित की निगाह गन्धकुटी के शीर्ष पर जा ठहरी।“ओ, बोधिसत्व : स्वयम् भगवान् बुद्ध यहाँ विराजमान हैं ! तो फिर महावीर कहाँ हैं ? बोधिसत्व : महावीर । महावीर : बोधिसत्व । राजा के कानों में मल्लिका के शब्द गूंज उठे : 'मैं भगवत्ता में भेद नहीं देख पाती, देवता ।' राजा अमनस्क हो कर केवल देखता रह गया ।
महादेवी मल्लिका गन्धकुटी के पादप्रान्त में, आशीर्ष प्रणिपात में बिछ गई । राजा और उसके अनुगामी परिकर ने भी उनका अनुसरण किया । महादेवी स्त्री-प्रकोष्ठ में बैठ गयीं । पुरुष वर्ग पुरुष - प्रकोष्ठ में समाविष्ट हो गया ।
प्रसेनजित का शरीर आनन्द, आरति और आतंक से एक साथ कम्पायमान है। उसे लगा कि उसके मन के सारे आवरण छिन्न हो गये हैं । उसकी तमाम कुत्साओं और पापों के पर्दे, किसी ने एक ही झटके में विदीर्ण कर दिये हैं ! ओ, वह महावीर के सामने नग्न खड़ा है ! उसके सारे भेद खुल गये, सारे गुप्त रहस्य प्रभु के आगे प्रत्यक्ष हो गये । राजा की नाड़ियों का लहू जम गया । वह घास के तिनके की तरह काँप रहा है ।
एक दीर्घ मौन के बाद, गन्धकुटी के रक्त - कमलासन पर से सम्बोधन सुनाई पड़ा :
'मालाकार - कन्या मल्लिका जयवन्त हो ! '
तत्काल मल्लिका अपने स्थान से उठ कर श्रीमण्डप में उपस्थित हो, नतमाथ हो गई ।
'जिनेश्वरों के पूजा - फूलों की तरह पावन है यह मल्लिका । शूद्रा हो कर भी, यह अर्हन्त की जन्मजात सती है । कोशल देश की पट्ट- महिषी इसके चरणों की चेरी मात्र है ।'
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