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________________ ८४ 'मुझ पर विश्वास करोगे, देवता ?' 'बोलो, क्या कहना चाहती हो ?' 'मुझे आप अपनी संरक्षिका भवानी मानते हैं, अपनी लक्ष्मी कहते हैं न ? तो सुनें महाराज, मैं आपके साथ चलूंगी महावीर के समवसरण में। आपके पास मुझे खड़ी देख कर, सर्वजित् जिनेश्वर महावीर हार जायेंगे ! ' ' सचमुच -- ?' राजा को एक मांत्रिक प्रत्यय-सा अनुभव हुआ । ... 'महावीर प्रेमिक है, यही उसकी सबसे बड़ी विवशता है । मल्लिका की चितवन की अवहेलना करना उसके वश का नहीं । मारजयी महावीर का वशीकरण और मारण केवल मेरे पास है ! ' कोशलेन्द्र प्रसेनजित को स्पष्ट लगा, कि वह जैसे कोई अचूक आकाशवाणी सुन रहा है । हर्ष और रति से एक साथ पुलकित और कम्पित हो कर, उसने उमड़ कर मल्लिका को अपने आलिंगन में बाँध लिया । और कातर विगलित स्वर में बोला : 'मल्ली, अनुगत हुआ तुम्हारा । तुम मेरी शक्ति हो । तुम जहाँ भी ले चलोगी, तुम्हारा अनुगमन करूँगा ! ' .... एकाएक प्रभातकालीन ऊषा का आकाश देव - वाद्यों से गुंजायमान हो उठा । 'तीर्थंकर महावीर आ गये, स्वामी ! ' 'सुनो देवी, मेरी दोनों भौहों के बीच की त्रिकुटी में यह कैसा प्रकर्षण हो रहा है ? यह कैसा सुखद कम्पन है मेरे ब्रह्मरन्ध्र में ? यह कौन मुझे बरबस खींच रहा है ? ... ' 'केवल तुम्हारी मल्लिका, और कोई नहीं ! ' 'यह तुम हो, कि तुम्हारा महावीर है ? कितना भयानक, लेकिन कितना मोहक है यह महावीर ! इसकी मोहिनी से मुझे बचाओ, प्रिये ! ' ‘मेरी ही मोहिनी से डरोगे ? मैं हूँ न तुम्हारे साथ ! फिर डर किस बात का ? ' प्रसेनजित उस मल्लिका को निःशब्द, निर्विकार ताकता रह गया । ...महाद्वार पर कंचुक की उद्घोषणा सुनाई पड़ी : 'परम भट्टारकं निगंठनातपुत्त, चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर का श्रावस्ती में शुभागमन हो गया । अचिरावती तट के 'मणि-करण्डक उद्यान' में श्रीभगवान् का देवोपनीत समवसरण बिराजमान है ।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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