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'मुझ पर विश्वास करोगे, देवता ?'
'बोलो, क्या कहना चाहती हो ?'
'मुझे आप अपनी संरक्षिका भवानी मानते हैं, अपनी लक्ष्मी कहते हैं न ? तो सुनें महाराज, मैं आपके साथ चलूंगी महावीर के समवसरण में। आपके पास मुझे खड़ी देख कर, सर्वजित् जिनेश्वर महावीर हार जायेंगे ! '
' सचमुच -- ?' राजा को एक मांत्रिक प्रत्यय-सा अनुभव हुआ ।
...
'महावीर प्रेमिक है, यही उसकी सबसे बड़ी विवशता है । मल्लिका की चितवन की अवहेलना करना उसके वश का नहीं । मारजयी महावीर का वशीकरण और मारण केवल मेरे पास है ! '
कोशलेन्द्र प्रसेनजित को स्पष्ट लगा, कि वह जैसे कोई अचूक आकाशवाणी सुन रहा है । हर्ष और रति से एक साथ पुलकित और कम्पित हो कर, उसने उमड़ कर मल्लिका को अपने आलिंगन में बाँध लिया । और कातर विगलित स्वर में बोला :
'मल्ली, अनुगत हुआ तुम्हारा । तुम मेरी शक्ति हो । तुम जहाँ भी ले चलोगी, तुम्हारा अनुगमन करूँगा ! '
.... एकाएक प्रभातकालीन ऊषा का आकाश देव - वाद्यों से गुंजायमान हो उठा ।
'तीर्थंकर महावीर आ गये, स्वामी ! '
'सुनो देवी, मेरी दोनों भौहों के बीच की त्रिकुटी में यह कैसा प्रकर्षण हो रहा है ? यह कैसा सुखद कम्पन है मेरे ब्रह्मरन्ध्र में ? यह कौन मुझे बरबस खींच रहा है ? ... '
'केवल तुम्हारी मल्लिका, और कोई नहीं ! '
'यह तुम हो, कि तुम्हारा महावीर है ? कितना भयानक, लेकिन कितना मोहक है यह महावीर ! इसकी मोहिनी से मुझे बचाओ, प्रिये ! '
‘मेरी ही मोहिनी से डरोगे ? मैं हूँ न तुम्हारे साथ ! फिर डर किस बात का ? '
प्रसेनजित उस मल्लिका को निःशब्द, निर्विकार ताकता रह गया । ...महाद्वार पर कंचुक की उद्घोषणा सुनाई पड़ी :
'परम भट्टारकं निगंठनातपुत्त, चरम तीर्थंकर भगवान् महावीर का श्रावस्ती में शुभागमन हो गया । अचिरावती तट के 'मणि-करण्डक उद्यान' में श्रीभगवान् का देवोपनीत समवसरण बिराजमान है ।'
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