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________________ कहती हूँ-या 'बुद्धं शरणं गच्छामि' कहती हैं, तो उसी में से मुझे प्रतिध्वनित सुनाई पड़ता है-'ओं णमो अर्हन्ताणं, णमो सिद्धाणं...'--तो इसमें मेरा क्या दोष है ?' राजा को लगा, कि वह इस मालाकार कन्या के आगे बहुत छोटा हुआ जा रहा है। अपमान से तिलमिला कर वह तड़क उठा : 'बकवास बन्द करो, मल्लिका ! यह एक गंभीर प्रसंग है, और कुछ निर्णय लेना होगा। कभी तो समझ-सोच पूर्वक कोई परामर्श दिया करो।' ‘एक माली की निरक्षर बेटी समझ-सोच क्या जाने, आर्यपुत्र ! आप तो तक्षशिला के स्नातक रहे हैं। शस्त्र, शास्त्र, राजनीति, कला--सारी विद्याओं में पारंगत हैं। और इतनी विशाल धरती के मालिक हैं। मैं ठहरी एक निरी अज्ञानिनी शूद्र-कन्या। आपने जाने क्या सोच कर, मुझे कोशलदेश की पटरानी बना दिया। इस अदना दासी को क्षमा करें, स्वामी। 'अपने को इतना न गिराओ, देवी। तुम कोशलेन्द्र के हृदय पर राज्य करती हो। अपने को इतना नीचे ला कर, हमारा अपमान न करो।' ___‘एक चरण-दासी आपका सम्मान और कैसे करे? उसकी अकिंचनता ही तो, महामहिम देव-देवेन्द्र परम-परमेश्वर कोशलेन्द्र की पूजा हो सकती है !' _ 'तुम्हारे समर्पण से हम गौरव अनुभव करते हैं, देवी। लेकिन यह घड़ी निर्णायक है। तुम्हारे समर्पण की कसौटी का है यह क्षण ।' 'आज्ञा करें देव, आपका क्या प्रिय कर सकती हूँ !' 'यह महावीर का आगमन हमारे लिये ख़तरनाक़ है। इस अमंगल को कैसे टाला जाये ?' 'उनका सामना करके। सर्वजित् महावीर को जीतने का यही एक मात्र उपाय है। एक निहत्थे नग्न अर्हत् को जीत लेना तो, कोटिभट कोशलेश्वर के लिये मात्र खेल ही हो सकता है। है कि नहीं?' 'तुन महावीर को शायद नहीं जानतीं। वह बहुत ख़तरनाक़ आदमी है। आर्यावर्त में यह प्रसिद्धि है, कि महावीर जादूगर है। वह बड़ा विकट इन्द्रजाली है। चुप रह कर ऐसी चोट करता है, कि कोई पानी न माँग पाये। मंत्रीश्वर आर्य सीमन्धरायण, महाबलाधिकृत दीर्घकारायण, सेनापति बन्धुल मल्ल-हमारे सभी पार्षद् एक स्वर से कहते हैं कि, यह महावीर एक दुर्दान्त तांत्रिक और विद्याधर है। वह अपने एक कटाक्ष मात्र से मारण, मोहन, स्तम्भन, वशीकरण, कीलन एक साथ कर सकता है। उसने अजेय श्रेणिक और पराक्रान्त उदयन तक को अपनी मुट्ठी में कर लिया है। उसके सामने जाना ही अपनी मौत को न्योतना है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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