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________________ नदी-घाटों में सारे संसार के सार्थवाहों के पोत लंगर डाले हुए हैं। सोलोमन की खदानों का सुवर्ण वहाँ उतरता है। शाक्यों का शक्तिशाली गणतंत्र उसके अँगूठे तले दबा है। महाबली मल्ल उसके प्रताप से थरथराते हैं। बंधुल मल्ल जैसे पराक्रान्त योद्धा ने, अपना गणतंत्र त्याग कर उसका सेनापतित्व स्वीकार किया है। वैशाली उसकी केन्द्रीय वाणिज्य शक्ति से आतंकित है। सारे गणतंत्र उसकी बलात्कारी सैन्य-शक्ति से काँपते रहते हैं। उसकी श्रावस्ती में, सुदत्त अनाथ-पिण्डक और मृगार श्रेष्ठी जैसे संसार के मूर्धन्य सार्थवाह और नवकोटि-नारायण रहते हैं। उसके ख़ज़ाने सुवर्ण द्वीप और ताम्रलिप्ति की श्रेष्ठ रत्न-राशियों से झलमला रहे हैं। फिर उसे किसका डर है ? ___..लेकिन यह क्या, कि यह सारा प्रताप और ऐश्वर्य, हठात् किसी कालवैशाली के झोंके से मोमबत्ती की तरह बुझ जाता है। घुप्प अँधेरे में वह निराधार अकेला छूट जाता है। उसकी चेतना डूबने लगती है। आह, अपनी तमाम सत्ता, सम्पदा और ऐश्वर्य के बीच भी वह कितना असहाय, असमर्थ और अकेला छूट गया है। हर रात अपने अन्त:पुर की एक-एक रानी के शयनागार में जा कर उसने, नित नये रूप-सौन्दर्य और काम में सहारा पाना चाहा है। लेकिन... लेकिन यह क्या हो गया है उसे, कि उसका वीर्य उससे किसी ने छीन लिया है। हर रानी का बाहुबन्ध एकाएक ढीला पड़ जाता है। वह उदास अवसन्न हो कर झुंझला उठती है, और उससे मुंह फेर कर सो जाती है।... कक्ष में कोई कातर नारी-कण्ठ गूंज उठता है : 'तुझ में वीर्य था ही कब, जो छीन लिया किसी ने, कापुरुष, क्लीव, नपुंसक ..!' गान्धार-राजनंदिनी कलिंगसेना से उसने हाल ही में बलात् विवाह किया है, लेकिन वह, उसकी पहोंच के बाहर है। ठीक सुहाग रात के मुहूर्त में वह कहाँ चम्पत हो गयी थी, इसका पता कोशलेन्द्र का सारा परिकर भी न लगा सका था। पट्टमहिषी महारानी मल्लिका के अन्तःपुर में जाने की उसे हिम्मत न हो रही थी। उसका तेज, उसका प्रशम, उसका मार्दव, उसका तपःपूत सौन्दर्य देख कर, राजा की आँखें झुक जाती हैं। उसकी ओर देखने तक का साहस उसमें नहीं है। लेकिन जब चारों ओर से वह नितान्त हताश और बेसहारा हो गया, तो उस रात वह महारानी मल्लिका के अन्तःपुर में चला गया। ठीक एक पतिपरायणा सती की तरह रानी ने अपने स्वामी का स्वागत किया। उस पर अक्षत-कुंकुम बरसा कर उसकी बलायें लीं। आँसुओं से उजलते नयनों, से उसकी मानो आरती उतारी। कि धन्य भाग, उसके दुर्लभ स्वामी आज उसके शयनागार में आये हैं। कई दिनों बाद राजा को जैसे किसी ने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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