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थाम लिया । उसके थरथराते अस्तित्व को आधार दिया । राजा को मालाकार कन्या मल्लिका के वक्ष में गहरी शान्ति मिली । वह आश्वस्त होकर शिशु की तरह सो गया ।
...लेकिन बड़ी भोर ही अचानक उसकी नींद उचट गई। वह फिर उसी अज्ञात भय से, पत्ते की तरह थरथराने लगा। उसके सारे शरीर में जैसे चींटियाँ चिटकने लगीं, और उसके अंग-अंग से ठण्डे पसीने छूटने लगे। उसे लगा, कि जैसे उसकी साँसें टूट रही हैं । उसका अन्त निकट आ गया है। उसके भिचते कण्ठ से एक चीख-सी निकल पड़ी। पास ही अत्यन्त शान्त भाव से सोई मल्लिका चौंक कर जाग उठी । उसने राजा को अपने पास खींच कर अपनी छाती से चाँप लेना चाहा । मगर राजा का शरीर निश्चेष्ट और ठण्डा पड़ा था। सन्निपात के विषम ज्वर में जैसे वह मुमुर्षु हो गया था । उसमें कोई हरकत, चाह, क्रिया थी ही नहीं ।
मल्लिका उठ कर बैठ गई । उसने प्रसेनजित के शरीर को बरबस अपनी गोंद में खींच लिया, और चुपचाप उसके माथे को सहलाने लगी। उसके प्रत्येक अंग पर हौले-हौले हाथ फेरने लगी। राजा थोड़ी ही देर में कुछ सचेत हो आया। उसके तन में कुछ गर्माहट आ गयी । कुछ पकड़ और हरकत महसूस हुई। तब महारानी ने धीर मृदु कण्ठ के आन्तरिक स्वर में पूछा :
'क्या बात है, आर्यपुत्र ?'
राजा तत्काल कोई उत्तर न दे सका। कुछ ठहर कर बोला :
'कुछ नहीं । बहुत दिनों बाद तुमसे मिलना हुआ है न । भोर की चाँदनी में तुम्हारा सोया सौन्दर्य देखा । भिनसारे के इस बड़े सारे पीले चन्द्रमा जैसा ही, तुम्हारा यह वयस्क सौन्दर्य ! कितना भोला और शान्त । तो-तो मैं बहुत विह्वल हो गया । मुँह से बरबस आह निकल पड़ी ।'
'बरसों बाद स्वामी की कृपा-दृष्टि मुझ पर हुई । मैं धन्य हो गई। यह क्या हाल बना रक्खा है ? बहुत फीके और उदास लगते हो ।'
'जानती तो हो, देवी, राजा की सेज सदा काँटों पर होती है। हर समय कोई खटक लगी रहती है । परचक्रों को कोशलेन्द्र का प्रताप असह्य है । आये दिन एक न एक षड्यंत्र मेरे विरुद्ध चलता ही रहता है। ख़ैर छोड़ो वह सब।''तुम इतनी सुन्दर हो, यह जैसे आज पहली बार देखा । ...'
'मुझे लज्जित न करें, आर्यपुत्र । मुझे इतनी दूर न करें, कि अलग से देखना पड़े।''लेकिन मेरे इस सौन्दर्य का क्या मूल्य, यदि वह मेरे स्वामी को बेखटक न कर सके ।'
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