________________
७८
'तुम मुझे छुओ, तुम मुझे मनचाहा लो, मेरी आत्मा। मैं तुम्हारी आत्मा, लो, मुझे लो। महावीर खुला है तुम्हारे सामने !' .. ___आम्रपाली खड़ी न रह सकी। उसने वह रूप देख लिया, कि उसका देखना, चाहना, पाना, छूना ही समाप्त हो गया। वह हार कर ढलक पड़ी, अपने पूर्णकाम प्रीतम के श्री चरणों में। पर वहाँ निरे चरण नहीं थे। सम्पूर्ण महावीर उसमें आत्मसात् था। एक अविरल अनाहत स्पर्श-सुख, उसकी देह के रेशे-रेशे में ज्वारित होने लगा। ऐसा अक्षय्य और अगाध, इतना पेशल, पेलव, सघन और लचीला, कि स्वयम् काम और रति का स्पर्श-सुख भी, इसके आगे नीरस प्रतीत हुआ। देहालिंगन और आत्मालिंगन का भेद, इस महाभाव में विसर्जित हो गया।
"शैय्या में गहन रतिलीन आम्रपाली की आँखें अचानक खुलीं। कक्ष में कोई नहीं था।
'आह, तुम चले गये, फिर मुझे अकेली छोड़ कर ?...
एक गहरे नशे में झूमते हुए आम्रपाली ने करवट बदली। ओ,"यह कौन लेटा है मेरे साथ, कटि से कटिसात् ? मेरे बाहुबन्ध में सदेह उन्मुक्त खेलता, मेरा एकमेव परमकाम पुरुष ! केवल मेरा आत्म। उससे बाहर अन्य कोई नहीं। अनन्य केवल मैं !
"नहीं, अब मैं कभी, कहीं भी, अकेली नहीं हूँ।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org