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________________ ७७ आम्रपाली स्तम्भित रह गई। अनुत्तर हो रही। फिर जाने कितनी देर बाद, भर आये गले से बोली : 'हाय, ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं मैं मैं तुम्हारे साथ मनमानी करूँ ?' 'मैंने क्या नहीं की वह तुम्हारे साथ ?' 'तुम सर्वशक्तिमान हो। मैं एक निपट अकिंचन कामिनी।' 'त्रिभुवन-मोहिनी आम्रपाली !' 'लेकिन तुम्हें न मोह सकी मैं ।' 'तो फिर मैं यहाँ क्यों हूँ ? मोह से परे कुछ और भी है, कि मैं यहाँ हूँ।' 'हो तो, लेकिन ।' 'बोलो, क्या चाहती हो? महावीर प्रस्तुत है, उत्सर्गित है।' 'कुब्जा दासी ने कृष्ण से क्या चाहा था ?' 'हाँ, जो उसने चाहा, वही कृष्ण से पाया।' 'पाया न? मगर कृष्ण रमण थे, लीला पुरुष थे। और तुम "तुम कठोर वीतराग अर्हत् महावीर हो !' 'अर्हत् विवर्जित है, बाधित नहीं, सीमित नहीं। उसे जो जैसा चाहेगा, वैसा ही पा लेगा। 'कुब्जा के काम को कृतार्थ कर गये कृष्ण !' _ 'कुब्जा ने जो माँगा, वही उसे मिला। लेकिन उसने स्वयम् कृष्ण को नहीं माँगा। तो तलछट पी कर भी प्यासी ही रह गई। बहुत पछताई बाद को। चाहती तो वह कृष्ण की आत्मा हो रहती। स्वयम् तद्रूप कृष्णा हो रहती। लेकिन वह अवसर चूक गई !' ___'मैं तुम्हें पाना चाहती हूँ, स्वयम् तुम्हें। लेकिन सशरीर। तुम मेरे पास क्यों नहीं आते?' 'ताकि तुम मुझे देख सको, चाह सको अपनो समस्त सौन्दर्य-वासना से। ताकि तुम मुझे प्रेम कर सको। पास तो इतना हूँ, कि अलग रक्खा ही कहाँ तुमने मुझे। लेकिन, आज सम्मुख हो कर, सामने खड़ा हूँ कि मेरे साथ जो चाहो करो !' ___'मैं तुम्हें छू नहीं सकती, मैं तुम्हें मनचाहा ले नहीं सकती। कितने अस्पृश्य, असंपृष्ट हो तुम। छुवन से बाहर, पकड़ से बाहर, कितने अलभ्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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