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________________ ७६ 'अक्षत योनि कुमारिका हो तुम । सृष्टि की जनेत्री । आद्या साबित्री ।' 'वह मैं कैसे हो सकती हूँ ?' 'वह न होती, तो महावीर यहाँ न होता ।' 'मैं एक वेश्या" और अक्षत योनि कुमारिका ? सावित्री ? मैं तुम्हारा अपमान हूँ, मैं कलंकिनी । मेरा और अपमान न करो। मुझ निरी यौना के लिये, तुम अपने अधर से धरती पर उतर आये, अपनी ऊँचाई से नीचे उतर आये ? यह मुझे सह्य नहीं ! ' 'योनि के पार योनि है, योनि के पार योनि है उसके भी पार वही । अन्तिम योनि, आप अपनी ही भोग्या, अपनी ही जनेता । अपनी ही आत्मा । केवल वही हो तुम ।' 'और तुम ?' 'मैं भी केवल वही । कोई लिंग नहीं, कोई योनि नहीं, केवल एक वही । तुम भी, मैं भी ।' 'लेकिन मैं कामिनी हूँ। वही रहना चाहती हूँ । तुम्हारी कैसे कहूँ ?' 'हाँ, हो, रहो वही, जो हो तुम। से सुवासित है । मुक्तिकामी भोग भी है । फिर भय क्यों ? हीनत्व क्यों ? ग्लानि क्यों ? ' तुम्हारा काम भी मुक्ति की वासना योग ही होता है । वह उत्तीर्ण भोग 'नहीं, मैं वह आत्मा नहीं, जो तुम कह रहे हो। मैं निरी शरीर हूँ, जिससे मैंने तुम्हें चाहा है । नहीं, मैं तुम्हारी नहीं हो सकती । तुम क्यों आये यहाँ ? मेरी पीड़ा को तुम कभी न समझोगे । मेरा शरीर मुझ से मत छीनो ! 'देखो, मैं सशरीर आया हूँ, तुम्हारे शरीर को आत्मसात् करने आया हूँ। मैं तुम्हारी मणिकर्णिका के सरोवर में स्नान करने आया हूँ । जहाँ काम ही पूर्णकाम हो कर, मणि- पद्म के रूप में उत्कोचित् होता है ।' 'तो मुझ से दूर क्यों खड़े हो ? पास क्यों नहीं आते ? ...' 'पास तो इतना हूँ, कि मुझ से अलग कहाँ रही तुम इन सारे वर्षों में ! और कल से इस क्षण तक, तुम कहाँ न आई मेरे भीतर ? मैं कहाँ न आया तुम्हारे भीतर ! ' 'लेकिन तुम इस समय, सम्पूर्ण सशरीर हो मेरे सामने । तो मैं कहाँ रुकूँ, कैसे रुकूँ ..?’ 'मत रुको, जो चाहो करो मेरे साथ ! मैं सम्पूर्ण यहाँ उपस्थित हूँ । ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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