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नील-लोहित इन्द्र-धनुष की आभा से उसकी शैया घिर गई। नील में से प्रस्फुरित होती गुलाबी विभा।
सहसा ही एक अण्डाकार नील ज्योति-बिन्दु, किसी नीलोत्पल की तरह अनायास प्रस्फुटित हो उठा। कक्ष में व्याप्त नीली रोशनी कोई आकार लेती-सी दिखाई पड़ी।"
अरे, यह कौन तुंगकाय दिगम्बर पुरुष सामने खड़ा है ! कोटि-कन्दर्प का अन्तःसार सौन्दर्य ।
आम्रपाली स्तब्ध निश्चल देखती रह गई। असम्भव सामने उपस्थित है। आँख, मन, सोच, समझ से बाहर है यह घटना। आम्रपाली अपने से अलग खड़ी हो कर, बस, केवल देख रही है। दृश्य, द्रष्टा, दर्शन के भेद से परे का है यह अवबोधन ।
- यह क्या देख रही हूँ मैं । बन्द कमरे में, एक नग्न पुरुष, एक नग्न नारी। एक भगवान् है, दूसरी वेश्या है। विराट् नग्न प्रकृति, और उसका कामरूप पुरुष, उसी के उष्णीष कमल में से आविर्मान । काम और रति का अनादि मिथुन । एक बन्द कमरे में।
कैसी ऊष्मा है यह, अपने ही आत्म में से स्फुरित होती हुई। अन्य कोई, कहीं नहीं। लेकिन यह एक और अनन्य जो सामने खड़ा है। जो एकल भी है, युगल भी है। और मैं कितनी अपदार्थ हुई जा रही हूँ। मिट जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं। मैं मैं मैं कौन ? तुम कौन ? मैं समाप्त हो रही हूँ। मुझे रहने दो, मुझे होने दो।
..और अम्बा जाने कब उस पुरुष के सामने आ खड़ी हुई। प्रणति का भान नहीं। केवल रति, केवल आरति की एक समर्पित ज्वाला।
'मुझे प्रिय है तुम्हारी यह वासना, ओ योषिता!'. 'मैं निरी योषिता नहीं, आम्रपाली हूँ !' 'आम्रपाली, परम पुरुष की कामायनी !' 'नहीं नहीं मैं इस योग्य नहीं। चले जाओ यहाँ से। क्यों आये तुम यहाँ ?'
'यहाँ से कभी न जाने के लिये !' 'मैं मैं एक निरी भोग-दासी। पुरुष मात्र की भोग्या। योनि मात्र मैं!"
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