________________
मूलाधार की पृथ्वी पर आ पड़ी हूँ। फिर से अपने धरामण्डल के स्वयम्भू लिंग से लिपट कर, अनाद्यन्त विरह-वेदना में मूर्छित हो गई हूँ। ___ नहीं, अब मैं तुम्हारे ऊर्ध्व के ज्योतिर्मय पर्यंक पर नहीं चढूगी। तुम्हें ही मेरी अनन्त वासना के इन तमसा-वनों में उतरना होगा। जब तक तुम मेरी माटी में अपना अमृत नहीं सींच देते, मुझे तुम्हारे अमर राज्य की महारानी होने में कोई रुचि नहीं है। ...
तुमने कोई उत्तर न दिया। अनुत्तर है तुम्हारी लीला, ओ मायापति !
"किस स्वप्न-देश में चली गयी थी? कितना काल बीत गया, पता नहीं चलता। क्या काल से परे था वह लोक? दर्पण में दृश्यमान नगरी जैसा वह विश्व। क्या वह निरी वायवीय माया थी? निरा स्वप्न, इन्द्रजाल ? नहीं, वह कुछ ऐसा था, जो किसी भी वास्तव से अधिक सत्य था। उसके सौन्दर्य, मार्दव, माधुर्य, लोच और रस से मैं अब भी समूची आप्लावित हूँ । __ और अब जागी हूँ, अपनी ठोस वास्तविक धरती पर। लेकिन कैसा नीरन्ध्र, अपार अन्धकार मेरे चारों ओर घिरा है। पता ही नहीं चलता कि कहाँ हूँ, हूँ कि नहीं? मेरी धरा का वह ठोस वास्तव क्या हुआ? एक निराकार अथाह तमसा के सिवाय कहीं कुछ नहीं।"अपने भीतर से उठता एक घोर नाद सुन रही हूँ। और उसमें से उठ रही हैं कुछ विशुद्ध ध्वान्त की आकृतियाँ। मेरे आसपास नीरव नृत्य करती काले चूंघटों वाली डाकिनियाँ । दूरियों में से आ रहा कोई अन्तहीन विलाप। चीखों, क्रन्दनों, दारुण रुदनों का समवेत प्रलाप। उफ्, राग-द्वेष, संघर्ष, यातना, रोग, क्षय, विनाश, जरा और मृत्यु का एक अटूट सिलसिला। क्या यही है मेरी पृथ्वी की नग्न वास्तविकता? ___"मैं 'कुछ-नहीं हो कर, एक अवधान, एक संचेतना मात्र रह गई हूँ। चेतना के किसी अज्ञात गहन में से उठती एक तरंग। मुझ में खुली हैं हजारों अपलक आँखें, हज़ारों आरपार खिड़कियाँ। केवल मात्र दर्शन-ज्ञान रूपा मैं। जिस स्वप्न में से जागी हूँ, उसकी नम्यता से कितनी लचीली, कितनी तरल। एक निरी सम्वेदना, स्फुरणा। उस अनाहत आलिंगन को तोड़ कर आई मैं : कितनी घात्य। मेरे रोमांच में जानने का आनन्द, और झेलने तथा मरने की यातना एक साथ । __ "ये क्या हुआ? मेरे 'कुछ-नहींपने' में से यह कैसा आर्तनाद उठ आया। ." और अगले ही क्षण फिर एक आह्लाद का कम्पन। निश्चेतन अलोकाकाश का शून्य विदीर्ण हो गया। और मुझ में से एक अड़ाबीड़ आदिम जंगल उग
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org