SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के पाणि-सम्पुट में जो बिस-तन्तु तनीयसी सर्पिणी रमणलीन है, उसे पहचानते हो? तुम्हारी नासाग्र दृष्टि में क्या वह कभी झलकी है ? वह तुम्हारे हृदय की एक अनामा, अविज्ञात, अज्ञेय कला है। वेश्या का क्या नाम हो सकता है, क्या पहचान हो सकती है, जिसे हर नये पुरुष के साथ बदल जाना होता है। जिसे हर अन्य शरीर के साथ, एक नये शरीर में जन्म लेना होता है। वही अनामा, इयत्ताहीना कला हूँ मैं तुम्हारी, तुम से भी शायद अनजानी। इसी से तो देख कर भी, अनदेखी कर गये। मेरे द्वार पर आ कर भी, मेरे भवन में, मेरे पास आने को विवश न हो सके ! न सही, पर अपनी एकान्त योगिनी रति से, मैं तुम्हारे इस अचल पद्मासन को अपने आँसुओं में गला दूंगी। लो आई मैं, ओ अभेद्य, तुम्हारी विष्णु-ग्रंथि और ब्रह्म-ग्रंथि को मैं भेद कर ही चैन लूंगी।। और लो, मैं तुम्हारे मेरु-दण्ड के सारे चक्रों को भंद कर, परम व्योम, परा शून्य में अतिक्रान्त हो गयी हूँ। मैं शंखिनी नाड़ी पर आरूढ़ हूँ। मेरे विसर्ग के तल में है सहस्रदल कमल। इसके प्रत्येक दल में अनन्त कोटि चन्द्र मण्डल झलमला रहे हैं। इस शुभ्र निरंजन उज्ज्वलता की उपमा नहीं। यह रंग-रूपातीत हो कर भी, इसमें इन्द्र धनुषों के बहुरंगी जल लहराते दीखते हैं। स्वरूप के दर्पण-महल में द्रव्य की विचित्र छाया-खेला।"अधोमुख है यह सहस्रार। इसमें से सम्मोहन बरसता रहता है। इसकी गुम्फित पाँखुरियाँ बालारुण के राग से रंजित हैं। अकार से आदि लेकर आद्योपान्त अक्षरों से इसकी देह भास्वर है। बड़ी शीतल चम्पक आभा वाली इसकी हज़ारों पाँखुरियों के वन में खोती चली जा रही हूँ। शान्ति, आनन्द और अमृत की कैसी मधुर आर्द्र फुहारों में भींज रही हूँ। क्षीर समुद्र की चाँदनी में नहा रही हूँ। सौरभ और संगीत के नीरव सान्द्र कम्पनों में तैर रही हूँ। अननुभूत है यह सम्वेदन, रोमांचन, विगलन। मैं बस चन्द्रमा में उत्संगित अमृत के समन्दर की लहरें मात्र हो रही। और बहती हुई, हज़ारों घनीभूत बिजलियों से जाज्वल्यमान एक त्रिकोण में पहुंच गई । "और सहसा ही कोई मुझे जाने कहाँ उठा ले गया। एक भास्वर महाशून्य के महल में, अन्तरिक्ष के चिद्घन पर्यंक पर लेटी हूँ। मेरे दिगम्बर परशिव मेरी योनि के रक्त-कमल पर, स्पर्शातीत अधर में आसीन हैं। शिव और शक्ति के रमण की एकीभूत निश्चल अवगाढ़ता का यह सुख, नाद, बिन्दु और कला से अतीत है। मैथुन "मैथुन... .. मैथुन, अनन्त और निरन्तर मैथुन । अजस्र और अद्वैत सम्भोग। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy