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पुरुष हो। आकाश-मूर्ति की तरह निश्चल खड़े हो। और तुम्हारे चारों ओर आनन्द का निःसीम समुद्र उछाले मार रहा है। मृत्यु और विनाश, मृत सर्प और मकर की तरह तुम्हारे चरणों में लुढ़के पड़े हैं।
लेकिन यह क्या देख रही हूँ, कि तुम से भी ऊपर एक अतिमनस् का राज्य है। वहाँ एक विराट् चन्द्रमण्डल के भीतर से 'हंसः' की अनाहत ध्वनि निरन्तर उठ रही है। उसमें परशिव अपनी शिवानी के साथ एक अपूर्व युगल-लीला में अवतीर्ण होते दिखाई पड़ रहे हैं। वैश्विक 'आज्ञाचक्र' के पार, बिन्दु के भीतर शत कोटि योजन के विस्तार वाला एक अन्तरिक्षीय, अवकाश देख रही हूँ। असंख्य सूर्यों की प्रभा से यह तरंगायमान है। यहाँ शान्ति से भी परे के परमेश्वर, शान्त्यातीतेश्वर, नव-ऊषा की गुलाबी कोर की तरह मुस्कराते विराजमान हैं। उनके वामांक में विराजित हैं शान्त्यातीता मनोन्मनी। उन्हें नव-नव्यमान सृष्टियों के कई नीलाभ मण्डल घेरे हुए हैं। यह बिन्दुतत्त्व की शुद्ध चिन्मय कला और लीला है। इसके ऊपर है अर्द्ध चन्द्र का मण्डल, जिसके दोनों छोर अति सूक्ष्म चित्कला में जुड़ कर, अतिमानसी क्रिया के नील-लोहित अन्तरिक्ष को उभार रहे हैं। यह चितिशक्ति का विलास-महल है। इसमें ज्योत्स्ना, ज्योत्स्नावती, कान्ति, सुप्रभा और विमला नामा पाँच कलाएँ जामुनी अम्भोजों पर खड़ी नृत्य कर रही हैं।
अर्द्ध चन्द्र के ऊपर है निर्बोधिका, जिसमें--बंधति, बोधिनी, बोधा, ज्ञानबोधा तथा तमोपहा नामा कलाएँ उन्मन उन्मत्त हो कर क्रीड़ा कर रही हैं। निर्बोधिका के ऊपर है नाद, घहराते मेघों का एक अमूर्त, छोरहीन प्रसार । उसमें इन्धिका, रेचिका, ऊर्ध्वगा, त्रासा तथा परमा नामा कलाएँ हैं, जो विशुद्ध और प्रवाही चेतना के स्पन्दनों से, मौलिक सर्जन, काव्य और संगीत के इन्द्र धनुष बुन रही हैं। नाद के आभोग में से उद्भिन्न है एक अनन्तगामी आकाश-कमल । उसके निलय में आसीन हैं, परम सम्वेदनीय परमेश्वर : बीतराग और पूर्णराग की ज्ञानातीत संयुति। वे अनगिन योजनों में विस्तृत हैं। वे पास से भी पास, और दूर से भी दूर हैं। उनके मुख-मण्डल में से उत्तरोत्तर सहस्रों चन्द्रमा उदय हो कर, अपरिमेय विस्तारों में व्याप रहे हैं। एक साथ उनके कितने-कितने मुख, मस्तक, नयन, बाहु और पाद चक्राकार प्राकट्यमान हैं। उनके कुंचित केशों में सारे समुद्र समाहित खेल रहे हैं। वे त्रिशूलधारी, दिगम्बर, ऊर्ध्वगामी हैं। उनके उत्संग में ऊर्ध्वगामिनी सौन्दर्यकला नव-नव्य कटाक्षों के साथ विलास कर रही है। __ गन्धकुटी के रक्त-कमलासन पर आसीन तुम्हारे नित नवरमणीय मुखमण्डल को शायद कभी न देख सकूँगी। लेकिन इस क्षण तुम्हारे पद्मासन
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