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संयुक्त विग्रह - रूपा । और उसके भीतर लहराती वह मृणाल तन्तु जैसी तनीयसी तन्वंगी नागिन । एक साक्षात्कार मानो ध्वनित हुआ : कुण्डलिनी ! प्रहर्षण के हिलोरों से मेरी देह उन्मादित हो उठी ।
''देख रही हूँ, यह मूलाधार - कमल सुषुम्ना से जुड़ा है। उसके फलावरण में अति कोमल सुन्दर सतत द्युतिमान त्रिकोण । अरे, यह तो कामरूप त्रिपुर है : सत, रज, तम का संयुक्त प्रदेश । यहाँ सदा कन्दर्प वायु प्रवाहित है, जो बन्धूक पुष्प की पराग जैसी गहरी रक्तवर्णी है। दस हज़ार दामिनियों-सी दमकती, प्राणियों की स्वामिनी । - देख रही हूँ, काम-बीज पर आसीन हैं संविद्रूपा महामाया । त्रिकोण में अपने लिंग रूप में विराजित हैं स्वयम्भू । तरल प्रवाही सुवर्ण-से कान्तिमान । उस लिंग पर साढ़े तीन आँटे मार कर लेटी बिस-तन्तु-तनीयसी कुण्डलिनी, अपनी पूँछ को अपने मुँह में दबाये हैं । संसार को पागल कर देने वाली सर्व मोहिनी ललिता ! ब्रह्मद्वार अवरुद्ध करके लेटी है वह तन्वंगी महीयसी । प्रणयाकुल मधुपों के गुंजन जैसी मधुर मर्मर ध्वनि उसमें से सतत उठ रही है । उसे सुन कर मेरी शिराओं में काव्य और संगीत की नदियाँ बह निकली हैं । और मूलाधार के मर्म में से निरन्तर परावाक् नाद गुंजायमान है ।
अहो, विचित्र है यह कुण्डलिनी, जो मेरे और सृष्टि के आरपार लहरा रही है। इसने मुझे अपने में समेट लिया है । और उसी क्षण वह प्रसुप्त पड़ी है - गहरे खुमार में । लिंग-मूल को अपनी कुण्डली में कस कर आवेष्ठित किये।‘“मैं स्वयं आम्रपाली । ठीक ऐसी ही तो हूँ : सारे जगत् में चंचल बिजलियों-सी खेल रही हूँ। फिर भी अपने योनि - पद्म में गहरी समाधिस्थ हूँ, अपने ही को हर पल निगलती हुई ।
''मूलाधार में से अचानक, उद्गीर्ण हो आया चतुर्दल बैंजनी कमल । उसकी चारों पंखुरियों से ध्वनित होते -- वं, शं षं, सं-चार मूलाक्षर : सुवर्ण रंगी । कमल के फलावरण में, चतुष्कोण धरामण्डल । ओ, यही है अनादि, आदिम, तात्त्विक पृथ्वी । उसके अधोभाग में धराबीज 'लं' का अनाहत भ्रमर - गुंजन । उस मण्डलाकार संगीत में मूच्छित हो कर मैं लिंग-मूल से लिपटी कुण्डलिनी के साथ अधिक-अधिक एकतान होती गयी ।
.... कि हठात् एक धक्का अतल से आया । मैं जाग कर, उस नागिन में लहरा कर, अपने उपस्थ योनि-पद्म में आरोहण कर गयी । ओ, स्वाधिष्ठान चक्र का प्रदेश ! श्वेत प्रभास्वर वरुण का जल - राज्य । अर्द्ध-चन्द्राकार । उसके मध्य में उत्फुल्ल षट्दल कमल । उसकी छह पाँखुरियों से ध्वनित होते - बं, भं, मं, यं, रं, लं बीजाक्षर । आदि वीणा पर गाती हुई विद्युल्लेखा । फलावरण के जल-प्रदेश में, मकर पर आरूढ़ है जल - बीज 'वं'। उसके गहराते
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