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गर्जन में से अवतीर्ण नीलकान्त श्रीहरि। तारुण्य और प्रणय की चेतना के अधीश्वर। पीताम्बर धारी। श्रीवत्स, कौस्तुभ चिह्नित वक्ष । पास ही बैठी है नीलोत्पला राकिनी। उस त्रिनेत्रा ने मुझ पर एक भ्रू-निक्षेप किया। कि तत्काल मेरा 'मैं' समाप्त हो गया। केवल 'वह' हो रही। राकिनी, रमा, नारायणी, आम्रपाली। एक ही चित्कला मैं, कितने रूप, नाम, आकारों में खेल रही हूँ। और मेरे गर्भ में ओंकारनाद के साथ एक अनाहत डमरू बजने लगा। मेरी जंघाओं में दुंदुभि घोष के साथ बादल गरजने लगे।
बिजलियों से रमण करते उन साँवले मेघों से लिपट कर, मैं गगन में घहराने लगी। गगन का पहला पटल मेरे कामात नाद से भिद गया। "मैं छलाँग मार कर, नाभि के दश-दल कमल पर आरूढ़ हो गई। ओ, मणिपूर चक्र का प्रदेश ! जलभार से भरित, वर्षा के मेदुर मेघों जैसे वर्ण का है यह कमल। अग्नि का त्रिकोणाकार राज्य । उदीयमान सूर्य की तरह प्रोद्भासित । कमल की दस पाँखुरियों से निनादित होते--तं,थं,दं,,,नं,पं,फं,डं,ढं, णं--अग्नि-बीजों का वैश्वानर साम-संगीत। उनकी नीलकान्ति में से उठती सृजन की लोहित ज्वालाएँ। अग्नि का रक्ताभ प्रदेश। स्वस्तिक चिह्नों से अंकित त्रिकोणाकार। त्रिकोण के भीतर अग्नि-बीज 'रं'। वह रातुल प्रभा से दमकता, मेष पर आरूढ़ है।
वह्नि-बीज की गोद में विराजित हैं रक्तकान्ति रुद्र, वृषभ पर आरूढ़, भस्म-चर्चित श्वेताभ। उनकी गोद में खेल रही है नीलकान्ता लाकिनी : त्रिमुखी, त्रिनयना, चतुर्भुजा, वज्र और शक्ति अस्त्रों से मंडित, अभयदान और वरदान की मुद्रा में हाथ उठाये। सृष्टि के संहारक पुरातन-पुरुष रुद्र की प्रिया, कराली महाकाली । आम्रपाली ! ओ मेरे महारुद्र, तुम्हारे तृतीय नेत्र में खेल रही है सर्वसंहारिणी अग्नि-लेखा। वह मैं ही तो हूँ, आम्रपाली ! "तुम लेट गये, और मैं तुम्हारे भस्मालेपित विराट् वक्षदेश पर उद्दण्ड, उद्दाम, निर्बन्ध वह्निमान् नागिन-सी, संहार-नृत्य करने लगी। मेरी सर्वदाहक वासना, तुम्हारी ऊर्ध्व-रेतस् काया पर दिगम्बर ज्वाला-सी ताण्डव करती हुई, ऊध्वों के अभेद्य वलयों को भेदने लगी।
"सहसा ही क्या देखती हैं, कि अन्तरिक्ष के केन्द्र में हिल्लोलन के आवर्त उठने लगे। दहराकाश का आभोग पटल विदीर्ण हो गया। और मैं प्रियंगु लता की तरह उछल कर, पद्मराग मणि जैसे रातुल कमल पर आरूढ़ हो गई। अहो, यह हृदय का 'अनाहत कमल' है। यह कल्पवृक्ष की तरह सर्वकाम पूरन है। कामी की हर कामना से शतगुना अधिक काम्य यह देता है। यह कपोत-कुर्तुर वायु का प्रदेश है। मेघ-वल्ली जैसी धूमिल, गहरी भींजी संवेदनाओं का अश्रु-व्याकुल मण्डल। प्यार का अव्याबाध मोहन-राज्य । इसकी रक्तिम
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