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________________ और इसके कुछ दिन बाद ही, सुदंष्ट्र नाग कुमार ने जो उपसर्ग तुम पर किया था, उसकी वार्ता सुनी थी। छाती ट्रक-ट्रक हो गयी थी। अथाहों में तुम्हारे साथ चल कर भी, कितनी अकेली हूँ। तुमने तो अपना चेहरा तक मुझ से छीन लिया है। हाय, तुम्हारा वह निर्बन्धन् रूप, मेरी आँखों, और यादों में कैसे रुक सकता है। निखिल चराचर के त्राता हो, प्रीतम हो, पिता हो। लेकिन अत्याचार करने के लिये केवल मुझे ही तो चुना है। जानती हूँ, तुम्हारे सत्यानाश को मेरे सिवाय और कौन सहेगा? ... याद आ रही है, हेमन्त की वह हिम-पाले की रात। सारी नग्न प्रकृति ठिठर कर अपने ही में धंसी जा रही थी। तभी अचानक केशर-कस्तूरी की सुगन्धों में बसी अपनी नर्म-गर्म शैया, और शाल्मली रूई की रज़ाई मुझे असह्य हो गई। शीत हवाओं के इस प्रभंजन में तुम कहाँ खड़े होगे इस वक्त ?... मैं भाग कर उद्यान के बर्फानी सरोवर में उतर गई। वस्त्र इतने असह हो गये, कि आप ही गल गये उस बड़वानल में। एक अनन्त नग्नता में, मेरी नग्नता निमज्जित हो गयी। 'ओह, कैसी अथाह ऊष्मा है यह ! परम सुरक्षा का अन्तिम निलय : अपना एक मात्र घर। ओ मेरे हिमवान् पुरुष, तुम तो बाहर खड़े हो, सृष्टि के सारभूत शीत को झेलते हुए। नहीं चाहिये मुझे तुम्हारी यह ऊष्मा, जो इतनी अरूप और विदेह है, कि मेरे काम को चरम तक उद्दीप्त कर, मेरी बँधने को आकुल छाती को भेद कर, अन्तरिक्ष में लीन हो जाती है। मुझे जला कर भस्म कर दो अपनी शीताग्नि में, ओ मेरे हिम-पुरुष ! और लो, मैं भस्मीभूत हो कर तुम्हारी निरंजन देह पर आलेपित हो गई। पर, मेरी भस्म में गुप्त आग को तुम सह न पाये। लेकिन इससे बच कर अब तुम जा नहीं सकते। मगर तुम जा चुके थे। और मैं हिम के सरोवर में नहीं, गर्म बिस्तरे की ऐन्द्रिक ऊष्मा में ला पटकी गई थी। अपने ही अङ्गाङ्ग में दहकती आग क्या कम थी मेरे लिये ?.. पीछे पता चला था, ये उस रात की बात है, जब तुम पर कटपूतना बाण-व्यन्तरी ने हिमपात् का उपसर्ग किया था। .... अपने उद्यान की एक ऊँची स्फटिक छत पर खड़ी हैं। हाथ के लीलाकमल से, शरद ऋतु के पारदर्श नीलाकाश में कोई छबि आँक रही हूँ। कोई ऐसा रूप, जो हर क्षण एक नये लावण्य की आभा में उभरता है। वह मेरे इस नीलाकाश के फलक में कैसे बँधे। और सहसा ही उस घनीभूत नीलिमा में, एक महामस्तक उत्तान खड़ा दिखायी पड़ा। मेरा वक्षमण्डल उद्भिन्न हो कर, ऊपर उठता ही गया, उस मस्तक का अवलम्ब हो जाने के लिये। और वह मस्तक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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