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________________ चरण मेरी छाती पर धरते निकल गये, और एक उजाड़ वनान्तर में ओझल हो गये। ऐसे प्रसंगों के बाद, होश में आने पर पाती थी, कि अपनी शैया में जख्मों से टीसती लेटी हूँ। भिषग् कुमारभृत सेवा में उपस्थित होते। अनेक शीतोपचारों, आलेपनों, मरहमों, शामक औषधियों से मेरा उपचार चलता रहता। किसी की हिम्मत नहीं होती थी पूछने की, कि किस हत्यारे ने ऐसी मार मुझे मारी है। एक वेश्या के ख़रीदार प्रीतम, उस पर हर जुल्म ढाने का परवाना रखते हैं। समझने में दिक्कत ही क्या थी ! ००० 'एक आधी रात अपनी शैया के रत्न-प्रदीप को अकारण ताकती पड़ी थी। कि आँखें अनिमेष खुली रह गईं, समय-भान चला गया। और जैसे एक प्रकाण्ड आवाज़ के साथ, चेतना के पटल खटाखट बदलते चले गये । और जहाँ पहुँची, वहाँ पाया कि एक फाँसी के फन्दे में मेरी गर्दन झूल रही है। दो चण्डाकार भयंकर वधिक, दोनों ओर खड़े फाँसी के फन्दे खींचने को तत्पर थे। फाँसी के फंदे खिचे, नीचे से तख्ता हटा लिया गया। मेरी भिंचती गर्दन से एक चीत्कार निकल पड़ी। मैं चिल्ला कर जाग उठी--पाया कि अपनी शैया में हूँ, एक भयंकर दुःस्वप्न से जागी हूँ। लेकिन मेरी कण्ठ-नलिकाएँ जैसे टूट गई हैं, गर्दन मृतक की तरह एक ओर लुढ़की पड़ी है। और मेरे सर के नीचे एक नग्न पुरुष की गोद है शायद। और उसका हाथ मेरी ग्रीवा को सहला रहा है। ___और अगले ही दिन खबर मिली थी, कि कहीं किसी राजाज्ञा से तुम्हें फाँसी पर चढ़ाया गया था। लेकिन फन्दों पर चाण्डालों का वश न रहा। वे फन्दे मेरी गर्दन पर थे, मेरे केशों में थे, मेरी बाँहों में थे। मैं तुम्हारी फाँसी बन गई थी, और तुम मेरी फाँसी बन गये थे। उसके बिना तुम्हें पाने का उपाय ही क्या था? ___कई दिनों, महीनों भूख-प्यास लगती ही नहीं थी। किसी की दरदभरी याद के भीने बादल, सारे मन-प्राण पर छाये रहते थे। उस निर्मम की याद, जो किसी को याद रखता ही नहीं। याद करना या रखना, जिसका स्वभाव नहीं, स्वधर्म नहीं। किसी भी पर्याय या अवस्था में जो ठहरता नहीं, बस केवल देखता है-हर गुज़रती अवस्था को, और उसके साथ तद्रूप हो कर, उसे अपने साथ बहा ले जाता है। लेकिन उसकी हर अवस्था पर, मेरी निगाह समयातीत भाव से लगी रहती थी। मैं स्वयम् ही उसकी भूख-प्यास हो रहती थी। वह स्वयम् ही मेरी भूख-प्यास हो रहता था। तो मेरे दरद में से ही ऐसा कोई मकरन्द झरता था, कि उसमें प्लावित होकर, मैं परम तृप्त हो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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