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पर्यंकों पर नहीं। सत्यानाश की बिजलियों पर, कल्पान्तकाल की अग्नि-वर्षाओं तले, प्रलय-समुद्र के मरण-भंवरों में, तुम हर पल मेरे बाहुबन्ध में जकड़े थे। लोक की एकमेव सबसे नंगी औरत, फिर भी कांचन के कंचुक की बन्दिनी। लेकिन जब तुम निहंग नंग-धडंग होकर, मानुषहीन बियाबानों में अकेले निकल पड़े, तो मुझे अवसर मिल गया। तुम्हें पकड़ने का नहीं, तुम्हारा शरीर हो रहने का। तुम्हारे पिण्ड के एक-एक परमाणु में प्रवेश कर, तुम्हारी बहत्तर हजार नाड़ियों में स्पन्दित होने का।
.. रंगीन नीहारों के वे तन्द्रावन, क्रीड़ा-केलि के नहीं थे। उनमें अतिक्रमण कर, मुझे विनाश और मृत्यु के सीमाहीन अन्धकारों में खो जाना होता था। तुम्हारी खोज में, कि तुम कहाँ होगे इस वक्त, इस क्षण? एक साँस में हज़ार बार जन्म-मरण करती मैं, तमसा के सागरों को चीरती मैं, उस तट पर तुम्हारे चरणों में आ पड़ती थी, जहाँ तुम मानुष नहीं होते थे, निरे कूटस्थ पाषाण या स्थाणु होते थे।
"तुम्हारे गृह-त्याग के दूसरे ही दिन, अपने कक्ष के दर्पण के सामने सान्ध्य शृंगार कर रही थी, कि अचानक मूर्छा के हिलोरे आने लगे। एक रक्तिम आंधी मुझे जाने कहाँ उड़ा ले गई। किसी चरागाह में ला पटका । और हठात् मुझ पर बँटी हुई मोटी रस्सी के कोड़े बरसने लगे। पता नहीं कौन मार रहा था? लेकिन उस मार की वेदना असह्य होते भी, उसे सहना मुझे अच्छा लग रहा था। हाय, कौन है यह क्रूर उपकारी, जो मेरी खाल उधेड़ कर मुझे इस कलंकिनी काया से मुक्त कर रहा है? मैं बहुत कृतज्ञ हुई। कोड़े की मार अचानक रुक गई। अपनी छाती से बहते रुधिर को देखा। अपने लहूलुहान अंगों को देखा। अपने ही हृदय-देश से उफनते रक्त में उंगली डुबा कर, अपने भाल पर तिलक लगा लिया। उसी से अपनी माँग भर ली। कि अचानक पाया, कि तुम्हारा खून से लथपथ शरीर मेरी गोद में लेटा है। और सामने एक ग्वाला, वह रस्सी का कोड़ा फेंक कर तुम्हारे आगे चरणानत है, और दो बैल पास ही खड़े टुकुर-टुकुर आँसू टपकाते हमें देख रहे हैं। तुम्हारे खून में मेरा खून बहा, और केवल वे पशु उसके साक्षी हुए। मैं तुम्हारी हो गई। फिर भी आज तुम से चिरकाल के लिये बिछुड़ कर, इस फूलों के कारागार में कैद पड़ी हूँ। ___ फिर एक मध्याह्न बेला में, कैसी सर्पगन्धा तन्द्रा में मैं अचानक डूब गई। और हठात् एक सहस्र फण भुजंगम, मेरी जाँघों को अपनी कुण्डलियों में कस कर, मेरे हृदय का दंश करने लगा। मेरे आँचल दूध से उमड़ आये। और वह काल-सर्प, निवान्त निश्चिन्त होकर, एक निर्दोष शिशु की तरह मेरे स्तनों को पीता ही चला गया।"और अचानक क्या देखती हूँ, कि तुम रक्त-झरते
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