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याद आने पर । विदेह हो कर, एक क्षितिजहीन वीरान में, किसी प्रेतात्मा-सी भटकने लगती हूँ।
सो घर कहाँ मेरा? और जिस दिन तुम घर छोड़ कर चले गये, उसी दिन मेरा भी घर कहीं नहीं रह गया। एक वेश्या होकर, मेरा अपना तो कोई जीवन कभी था ही नहीं। लेकिन इस सप्तभौमिक प्रासाद में सुरा, संगीत, शृंगार, लास्य का एक जीवन हर पल औरों के लिये जीने को मजबूर तो हुई ही हूँ। फिर भी ओ मेरे अन्तर्यामी, यह क्या तुम से छुपा है, कि तुम्हारे गृह-त्याग के बाद, आज तक मैं इस संसार में कहीं, किसी व्यक्ति या वस्तु के साथ घर पर नहीं हूँ।...
जागति और प्रसुप्ति के बीच चल रहे, अपने इस अनवरत जीवन-क्रम में, चाहे जब किसी विचित्र कर्वर तन्द्रा के वन में निर्वासित हो जाती हूँ। नीले, नारंगी, रक्तिम, केसरी, पीले, हरे, बादली, श्वेत-जाने कैसे अनेक तन्द्राओं के अविज्ञात प्रदेश, अनप्रवेशित लोक-लोकान्तर। एक के बाद एक नाना रंगी ज्योतियों के द्वीप और देशान्तर । एक रत्न-प्रच्छाय इन्द्रधनुष के नव-नव रंगीन नीहार-कक्षों में संक्रमण, अतिक्रमण, देशाटन, लोकान्तर, देहान्तर, जात्यन्तर । भटकन भी क्यों नहीं?
"तो वह अन्तिम शब्द बोलकर, मैं कहाँ खो गई थी? कौन मेरा हरण कर गया था? तुम्हारे सिवाय कोई और तो मेरी चेतना के साथ ऐसे मनमाने खेल नहीं खेल सकता। "इस सुख-शैया में लेटा मेरा सारा शरीर एक साथ अकल्प्य वेदनाओं और ज़ख्मों से टीस रहा है। इन कुछ क्षणों में, तुम्हारी सत्यानाशी तपस्या के उन साढ़े बारह वर्षों को एक बार फिर पूरा जी कर लौटी हूँ।"
विनाश और मौत की अन्धी घाटियों में, तुम अकेले ही नहीं विचरे हो। तुम तो वज्र शरीरी हो, जन्म से ही अघात्य हो। पर मैं तो निरी एक मर्त्य और पल-पल घात्य अबला नारी हूँ। फिर भी तुम्हारे तमाम उपसर्गों की आक्रान्तियों को, अपनी इस पद्म-पेलव काया में झेलने को मैं अभिशप्त रही हूँ। तुम्हारे अनगार होते ही, ऐसा लगा कि मैं तुम्हारे शरीर में प्रवेश कर गई हूँ, तुम मेरे शरीर में प्रवेश कर गये हो। नीतिमानों और चरित्रवानों के इस भद्र मर्यादाओं से वर्जित-बाधित लोक में तो तुम्हारे साथ एकशरीर होना सम्भव ही कैसे होता। यों बिन देखे भी तुम्हारे साथ एकात्म तो थी ही। लेकिन जब लोकालय की सारी मर्यादाएँ तोड़ कर, तुम विवर्जित अवधुत दिगम्बर हो कर निकल पड़े, तो उस महा-निर्वासन में तुम्हारे शरीर के भीतर जी चाहा खेलने से मुझे कोई रोक न सका। मगर विलास के
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