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हो सकोगे। मेरी वासना के इस मानुषोत्तर समुद्र तट पर, अब और कहने को रह ही क्या जाता है?
"मानुषोत्तर समुद्र के अन्तिम तट पर, अन्तिम शब्द बोल कर चुप हुई, कि अचानक यह क्या हुआ मेरे साथ ? चेतना के जाने कितने ही पटल एक-एक कर छिन्न होते गये। और मैं अनायास एक श्वेत तन्द्रा के वन में लुप्त हो गयी। और अब फिर जागी हूँ, तो इस कक्ष में हो कर भी, मानो सृष्टि के तमाम मण्डलों में भटक रही हूँ। ऐसा लग रहा है, जैसे कोड़ा-कोड़ी पल्यों और सागरों के आरपार, देश और काल के अमाप विस्तारों में यात्रित होकर लौटी हूँ। निगोद, नारक, तिर्यंच, मनुज और देवों की जाने कितनी योनियों में अनन्त काल परिभ्रमण कर आई हूँ। कोई कालमान या स्थान हाथ नहीं आ रहा है। कुछ ही क्षण बीते उस तन्द्रा में, कि अनगिनत कल्प, कि जन्मान्तर बीत गये, कोई अनुमान शक्य नहीं है।
क्या मुझे नींद आ गई थी? पर मुझे नींद कहाँ ? वह तो जाने कब से अनजानी हो गयी है। जिस दिन तुम आगार और शैया छोड़ गये, उसी दिन मेरी नींद भी तुम्हारे साथ चली गयी। सुनती हूँ, नींद तुम्हें आती ही नहीं। नन्द्यावर्त की मसृण सुखद शैयाओं में भी तुम कब सोये या जागे, आज तक कोई नहीं जान पाया है। सुनती हूँ, तुम जागते हुए भी सोये रहते हो, सोये होकर भी जागते रहते हो। ऐसे में मैं सो कैसे सकती हैं ? लगता है, अनादिकाल से तुम्हारे पायताने बैठी, तुम्हारे इस सोने और जागने के बीच के अन्तरालों में छटपटाती रही हूँ। न सो पाती हूँ, न जाग पाती हैं। कई बार अपने होने तक पर सन्देह हो जाता है। मैं हूँ कोई, यह तक विस्मरण हो जाता है। बस, एक जोत तुम्हारे पायताने अखण्ड जलती रहती है। और मैं न रह कर भी, उसे देखती रहती हूँ।
मेरा घर ? कहाँ है वह ? सप्त भौमिक प्रासाद के इन अनेक ऐश्वर्यभवनों में? विभिन्न ऋतु-आवासों में ? इस कक्ष में ? "नहीं, कोई घर मेरा अब नहीं रहा। यों तो वस्तुत: वह कभी था ही नहीं। एक वेश्या का घर कैसा? घर तो गृहिणी का होता है। योनि मात्र होकर जनमने और जीने को अभिशप्त, एक वारवनिता का घर से क्या लेना-देना। फिर भी जब तक तुम नन्द्यावर्त में थे, तो मैं भी सप्त भौमिक प्रासाद को अपना घर मान कर उसमें टिकी थी। इस आशा से, कि एक दिन कभी तो ऐसा आयेगा, कि अपने महल के किसी गोपनतम मनस्कान्त-मणि-कक्ष में, स्फटिक के पर्यंक पर, मन्दार फूलों की शैया में तुम्हारे साथ मैं तुम्हारे साथ क्या हो जाऊँ, क्या करूँ", कैसे कहूँ ! एक लज्जातीत निगूढ़ लज्जा से मर रहती हूँ आज भी, वह सब
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