________________
मैंने देश-काल में चल रही दूर तक की लीलाओं को अपने कक्ष में बैठ कर देखा है। शृंगार, प्रसाधन, फूल-फुलल, देवभोग्य भोजन, कल्प-लताओं जैसे विचित्र वसन, देश-देशान्तरों के विलक्षण और विविध रत्न-अलंकार, और सेवा में सदा प्रस्तुत शृंगारिका सैरन्ध्रियाँ।
पर इस सब में, मैं कहाँ हूँ और कहाँ नहीं हूँ, इसका मुझे कोई भान नहीं है। मैं जैसे हर भोग में हूँ, और तभी वहाँ से गायब हूँ। उचाट हो कर मन जाने किस वीराने में, जाने किसे खोजने लगता है। मेरे जीवन का हर दिन नित्य वसन्त है, नित-नव्य उत्सव है। पर इस तुमुल क्रीड़ा-कोलाहल के बीच मैं कितनी अकेली हूँ, कौन जान सकता है। निर्जन की एक अन्तःसलिला नदी, जिसके तट पर कभी कोई नहीं आया। फिर भी कौन कह सकता है, कि आम्रपाली अनुपस्थित है। उसकी उपस्थिति का अहसास मात्र, वैशाली की तारुण्य चेतना को सदा तरो-ताजा रखता है।
००
और मेरे इस निभृत अनजान कक्ष का वैभव, एक अपार्थिव रहस्य से अभिभूत-सा लगता है। मानो कि इस रत्न-माया में, कई जादुई लोकों के पर्दे रह-रह कर हटते रहते हैं। और जो सिंगार इस क्षण मेरे शरीर पर है, वह कितना उत्तीर्ण और मानवेतर-सा लग रहा है। यह किसी सैरन्ध्री का प्रसाधन नहीं, यह मेरी अपनी शृंगारकला का सारांशभूत सौन्दर्य होकर भी, मेरा किया हुआ नहीं है। मेरे गहरे जामुनी उत्तरासंग (अधोवस्त्र) की रेशमीनता में ऐसी गुदगुदी भरी, गद्दर रिलमिलाहट है, ऐसी उन्मादक लहरावट है, कि जैसे मेरी जंघाओं में रह-रह कर सुचिक्कण काले सर्प लहरा जाते हैं। पम्पा-सरोवर के पद्म-वनों में टंगे ऊर्णनाभ के जालों को, महीतम चीनी अंशुक के तन्तुओं में बुन कर बनाया गया उत्तरीय, मेरे कन्धों पर झूल रहा है। सर्प-निर्मोक को कमल-नाल के तन्तुओं में गूंथ कर बुनी गई कंचुकी, मेरे अद्वय उरोज-मण्डल के समुद्र को बाँधे रखने की विफल चेष्टा कर रही है। मेरे गुल्फ-चुम्बी कुन्तलों के भंवराले छल्लों में, जैसे अम्बावन कोयलों से टहुक रहे हैं। सहकार मँजरियों के कर्णफूलों में, यह कौन झूले की पैंग भर जाता है ? कदम्ब और केतकी के केसरभीने अंगराग में, छहों ऋतुओं की संयुक्त फूल-गन्धे महक रही हैं।
कृष्णागुरु, शुक्लागुरु और रक्त-गोरोचन से, मेरे उभराते स्तन-तटों पर पत्र-लेखा रची गई है। नवीन यवांकुर और पाटल-किसलय के झूमकों से मंडित मेरे मुखमण्डल को चिबुक से उचका कर, किसने मेरी लिलार पर गीले हरिताल और मनःशिला के कल्क से मंगल-तिलक कर दिया है ? मैं उस प्रीतम की सोहागन हूँ, जो कभी मेरे इस वासरकक्ष में नहीं आयेगा।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org