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तुम तो सदा के लिये मुझ से दूर, बहुत दूर चले गये थे। हमारे बीच, चरम वियोग के एक अभेद्य शून्य के सिवाय और बचा ही क्या था। तुम्हें कभी भी, अपनी इन्द्रियों के संवेदन में पाने की सारी आशा समाप्त हो चुकी थी। फिर भी क्या हुआ यह, कि तुम जितने ही अधिक अप्राप्य होते गये, मेरी इन्द्रियाँ उतनी ही अधिक सतेज और विकल होती गईं। तुम जितने ही अधिक कामजयी हुए, मैं तुम्हारे लिये उतनी ही अधिक कामात होती गई। ऐसा लगता था, जैसे एक अदम्य इन्द्र-शक्ति ने मुझ पर अधिकार कर लिया था। मेरी हर इन्द्रिय की वासना सौ गुनी हो गयी थी।
___ अपने ऐश्वर्य-कक्ष की शैया हो, या उद्यान के सुरम्य फूल-वन हों, क्रीड़ासरोवर हों, कि अपने स्नानागार के एकान्त में अपने साथ नग्न रमने के क्षण हों, कि निर्जन अरण्यों में एकाकी विचरण हो, कि सान्ध्य-सभा के सुरापान और नृत्य-गान हों, कि मुस्कानों के धनुष हों और कटाक्षों के तीर हों, कि प्रकृति के अपार सौन्दर्य के बीच, षड् ऋतुओं का उत्सव हो। इन सारी ही लीलाओं में, केवल वही एक अन्तःसार वृष्णीन्द्र खेल रहा था, और उसके रूपों और शरीरों का अन्त नहीं था। शैया के मसृण तकिये, मखमली गद्दे, विजन की चट्टान, ठुठ झाड़ का कठोर तना, सबको मैं एक-सी ही विह्वलता से, छाती से चाँप-चाँप लेती थी। कहीं भी गलबाँही डाल देती थी, तो चौंक कर पाती थी, कि चन्दन वृक्ष से लिपटी मेरी बाँह से सर्प लिपट गया है। या कोई चट्टान मेरी छाती की रगड़ से छिल कर लहूलुहान हो गई है, और मेरी बाँहों पर बिच्छू रेंग रहे हैं। भय नहीं होता था, एक अनूठी अनिरुक्त ऊष्मा से सारा तन-बदन भर उठता था।
__ अपनी असह्य स्पर्शाकुलता से बेचैन होकर, तकिये को छाती में दाब जब औंधी लेट कर शैया के गहराव में गड़ती ही चली जाती थी, तो अचानक पाती थी, कि किसी निविड़ सौरभ के सरोवर में उतराती चली जा रही हूँ। मेरी नाड़ियों में जाने कैसी तंत्रियाँ, बड़ी कोमल अश्रुत लय में बजने लगती थीं। और अचानक किसी कठोर शिला से टकरा जाती थी। कटीली झाड़ियों से बिंध जाती थी। शोणित में नहाई मैं, आँखें उठा कर देखती, तो पाती कि उस शिला पर तुम ध्यानावस्थित हो। तुम्हारी परम मार्दवी देह का एक मात्र प्रसाद था मेरे लिये चट्टान की पछाड़, काँटों की रगड़,
और रक्त-भीनी काया। लेकिन यह सब सुगन्ध और संगीत के सरोवर में डब कर ही पाती थी।
आज हर पल ऐसे दरद और बेचैनी का है, कि खड़े नहीं रहा जाता है। अस्तित्व को हर दिन सहना, एक और मृत्यु से पार होना है। फिर भी, मेरे काम की उद्दामता बढ़ती ही जा रही है। प्रत्येक इन्द्रिय की कामना
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