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________________ ४३ मैं निराधार आकाश की बेटी ज़रूर हूँ । मेरे माता-पिता कौन थे, कोई थे या नहीं, कोई नहीं जानता । अमराई तले अँबिया-सी टपक पड़ी थी । और दुर्दैव का ऐसा व्यंग्य हुआ, कि वह अनाथिनी बड़ी होकर भुवन मोहिनी रम्भा के रूप में प्रकट हुई। हर किसी की केवल भोग्या । किसी की समर्पिता वधू होने का भाग्य उसका न हो सका । तब उसने तुम्हारा नाम सुना, तुम्हारी कथाएँ सुनीं । और वह मन ही मन, तुम्हारी एकान्त कुँवारी सती हो रही । फिर भी वह विलास की सहस्रों रातों में बिकी, और भोगी गई । जगत् इसके सिवाय क्या जानता है । तुम्हारी एकान्त पतिव्रता दासी को यहाँ कौन पहचानता है । वह केवल तुम्हारी अछूती रजस्वला हो कर रही । उसके पेलव अन्तर - पद्म की कणिका तक, संसार का कोई पुरुष न पहुँच सका । वह आज भी तुम्हारे लिये वैसी ही कुँवारी, ताजा, और अस्पर्शिता है। मेरी देह का रोम-रोम, आज भी तुम्हारे लिये अछूता है । मेरे कंचुकि-बन्ध और नीवी-बन्ध का जो उन्मोचन कर सके, ऐसा पौरुष अभी तक मेरे देखने में न आया । ... और कोई तपस्या मैं नहीं जानती, मेरे नाथ, मेरे महेश्वर, कि जिसके बल मैं तुम्हारी पार्वती हो सकूँ । भगवती उमा की तरह, हिमवान् के गौरी-शंकर शिखर पर नागकेशर के वृक्षों की घनी झाड़ियों के भीतर, कठोर शिलातल पर बैठ कर मैंने तपस्या नहीं की । तुम्हारे गृह त्याग करते ही, जिस महाशून्य में अधर अकेली छूट गई थी, उसकी कल्पना किसी मानुषी चेतना से सम्भव नहीं है । मनुष्य की प्रीति और सहानुभूति से मैं परे जा चुकी थी । सचराचरा पृथ्वी की सारी रमणीयताएँ मुझसे दूर दूर दूर चली गईं थीं। यह सारा लीला-चंचल जगत्, अपने तमाम सुख भोगों, उल्लासों और सम्भावनाओं के साथ मेरी दृष्टि से ओझल हो गया था । 1 ... ज्ञातृखण्ड उद्यान की सूर्यकान्त शिला पर झाँय-झाँय करती सूनकार रात में तुम्हें एकाकी खड़ा देख रही थी । तब मैं उस महाविजन का भेंकार सूनापन हो कर रह गयी थी । वह हो कर ही मैं तुम्हें छू सकती थी, तुम्हें चारों ओर से घेर कर रह सकती थी । उस अफाट अन्धकार की चिह्नहीन दूरियों में, जो अनेक भयावनी आकृतियाँ उठ रही थीं, वह मेरे ही भयार्त्त मन की छाया - खेला थी । मेरा भय ही मुझे बेबस करके, तुम्हारे अभय राज्य आया था। आज अभिज्ञा हो रही है, कि हर विकार परा सीमा पर पहुँच कर, पूर्ण अविकार में परिणत और विश्रब्ध हो ही जाता है । फिर किसी भी अभाव या आक्रान्ति में, डरने का क्या कारण हो सकता है । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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