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________________ रत्न-सुवर्ण से भरे पोतों ने, मेरे तटों पर अन्तिम लंगर डाल दिये। सोलोमन की सुवर्ण-खदानों का स्वामित्व मेरे सौन्दर्य का याचक हो कर आया। यूनान के समुद्रजयी योद्धाओं ने, आम्रपाली तक पहुँचने के लिये अज्ञात बीहड़ सागरों की तहें उलटी। यूनान के कवियों ने अम्बा के अनदेखे सौन्दर्य पर महाकाव्य रचे, और वहाँ के दुर्द्धर्ष ज्ञानियों ने उसे अपने प्रणय का स्वप्न बना कर, नये सौन्दर्य-शास्त्र और जीवन-दर्शन आविष्कृत किये। लेकिन आम्रपाली अपने आकाश-वातायन से यह सब देख कर केवल मुस्कराती रही, और जब चाहा, मनुष्य के हर पुरुषार्थ और पराक्रम की पहोंच से वह बाहर हो गयी। वारांगना आम्रपाली के सान्ध्य-दरबार के द्वार, हर सहस्र सुवर्ण देने वाले के लिये खुले थे। चाहे-अनचाहे, उस सान्ध्य-सभा में आ कर गाने और नाचने को वह बाध्य थी। क्यों कि वह एक गणतंत्र की नगर-वधू थी। हर सुवर्णपति क्रेता का उस पर बोली लगाने का अधिकार था। उन सभाओं में कितने ही छद्मवेशों में, जाने कितने न शूरमा, सम्राट, धन्ना सेठी, ज्ञानी, तपस्वी, ऋषि, योगी न आये होंगे। मेरे कटाक्षों तले जाने कितनी न लाशें बिछी होंगी। लेकिन इरावान् समुद्र की जाया अप्सरा, आज तक कब किसी की अधिकृता हो कर रह सकी है ! जगत् के सारे सिंहासनों और वैभवों को व्यर्थ और पराजित करने के लिये ही तो, वह जल-कन्या यहाँ अवतरित होती है। ___ अपनी सान्ध्य-सभाओं के अपने लीला-लास्य को, मैं स्वयम् देख कर चकित रह जाती थी। मेरे कटाक्षों और मुस्कानों की मोहिनी, मेरे तमाम अतिथियों के होश छीन लेती थी। मुँह-माँगा द्रव्य दे कर वे मेरे विलास-कक्ष में आते थे। वे इस भ्रम में होते थे कि आम्रपाली उनकी बाँहों में आ गई है, मगर वे नहीं जानते थे कि आम्रपाली वायु-शरीरी है, जल-जाया है। वह मनुष्य की मांस-गर्भ-जात कन्या नहीं, आकाश की बेटी है। वह किसी की हुई नहीं, हो सकती नहीं। वे सुवर्ण, सुरा और शरीर की मूर्छा में डूब जाते थे, और अंबा के परिरम्भण सुख में मगन होने की भ्रान्ति में होते थे। और अम्बा जाने कब अन्तरिक्षा हो कर, उनके ठोस शरीरों की जकड़नों को बेमालूम बींध कर, हवाओं में गायब हो जाती थी। लेकिन ठीक तभी आम्रपाली, अपने अप्रवेश्य एकान्त कक्ष की शैया में, जाने किस अनदेखे पुरुष के विरह में छटपटाती हुई, करवटें बदलती रहती थी ! ___ शरीरों तक को भेद जाने की ऐसी सर्वमोहिनी सामर्थ्य ले कर, यदि मैं चाहती, तो क्या तुम्हें अपने बाहुपाश में अन्तिम रूप से नहीं बाँध सकती थी? लेकिन हाय, अपने असीम को सीमा में कैसे बाँधती ! अपने ही विराट को मांस में कैसे कैद करती ? सो तुम्हारे सामने आने के हर अवसर को मैं चुकती ही चली गई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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