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... लेकिन कल तो तुम स्वयम् ही मेरे द्वार पर आ खड़े हुए थे। अपनी इच्छातीत वीतरागता को तुम जानो। मगर कल तुम ठीक मेरे ही लिये, सारी मर्यादाएँ तोड़ कर आये थे, इसे किसी तर्क से नकारा नहीं जा सकता। तब मेरा अधिकार तुम पर प्रत्यक्ष हो गया था। और मैं चाहती, तो आ कर तुम्हारे चरणों को अपनी बाहुओं में समेट कर, अपनी छाती में सदा-सदा के लिये जकड़ लेती। मेरी छाती उस धातु से बनी है, जिससे छूट कर तुम जा नहीं सकते थे। क्यों कि यह छाती केवल तुम्हारे चरणों को झेलने के लिये बनी है। और सर्वमोहिनी वेश्या हो कर, यह मुझ से छुपा नहीं रह गया था, कि सर्वमोहन महावीर की नियति-वधू केवल मैं हो सकती हूँ। क्यों कि हम दोनों ही एकाधिकार से ऊपर हैं। हाय, तुमने मेरे वेश्यापन को भी सार्थक कर दिया। विचित्र है तुम्हारी लीला !
. ."जाने कब से जान गई थी, कि मैं जन्मान्तरों से तुम्हारी दासी और स्वामिनी एक साथ हूँ। इसी जन्मसिद्ध अधिकार की प्रत्यभिज्ञा के बल पर, तुम्हारे अनन्तकाल व्यापी विरह को सहते जाने की शक्ति मैं पा गयी थी। कल अन्तिम अवसर था, तुम्हें पा लेने का, वह भी मैं चूक गई। अब शायद कभी भी मैं तुम्हारे सन्मुख न हो सकूँगी। परसन तो तुम्हारा अकल्पनीय है। भगवान् को भला कौन छू सकता है ? लेकिन क्या तुम्हारे दर्शन तक की प्यास को ले कर ही मुझे मर जाना होगा?
ऐसा कोई निष्ठुर भगवान् कभी मेरी समझ में न आ सका, जो हर किसी के प्रेम का एकान्त अधिकार तो भोगता है, लेकिन हर कोई जिसके प्यार पर अपना एकान्त अधिकार नहीं रख सकता। क्षमा करोगे मुझे, मगर यह मुझे सर्वशक्तिमान भगवान् का बलात्कार और व्यभिचार लगता है। तो व्यभिचारिणी तो मैं भी हूँ ही। फिर हमारे बीच अन्तर कैसा? मुझ जैसी एक चरम व्यभिचारिणी ही, क्या तुम्हारे जैसे परम व्यभिचारी की एक मात्र वधू होने की अधिकारिणी नहीं ? आज मेरी पीड़ा पार-वेधक हो उठी है। उसी रोष और कटुता में, शायद मैं बहुत बड़ा सत्य बोल गयी हूँ !
पूछती हूँ, नर-नारी की ऐकान्तिक प्रीति की चाह क्यों है अस्तित्व में, यदि वह मिथ्या-माया है ? यदि उसे व्यर्थ ही होना है, तो प्रणय-सम्वेदना का उद्भव कर के, उसके चक्रावर्त्तनों और लीलाओं को पूरा अवसर दे कर, जगत् के स्रष्टा ने मनुष्य के साथ बड़ा क्रूर मज़ाक़ किया है। यदि नरनारी की ऐकान्तिक मानुषी प्रणय-लीला माया है, झूठ है, भ्रान्ति है, भंग होना ही उसकी एक मात्र नियति है, और केवल सर्व-प्रेमिक भगवान् को प्रेम करना और समर्पित होना ही एकमेव सत्य और सार वस्तु है, तो ऐसे दुहरे और द्वंद्वात्मक प्रपंच के परिचालक किसी सर्व-सत्ताधीश भगवान् को स्वीकारना,
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