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जाती हूँ । तुम्हारे गणराज्य की गणिका जो ठहरी मैं ! लेकिन तुम्हें ले कर मेरी लज्जा का पार नहीं था । मेरे अनजाने ही, तुम मेरी लाज के स्वामी जो हो गये थे। इतने, कि तुम्हारे सामने आना तक मेरे लिये असम्भव हो गया । इसी से उस दिन संथागार में भी न आ सकी, जब तुम पहली बार वैशाली आये थे । तुम्हारे दर्शन तक को तरस कर रह गई । उसके बाद भी, अपने तपस्या काल के परिव्राजन में तुम अनेक बार वैशाली आये । मेरी योनि कसक कर मुझे बता देती थी, कि तुम आये हो। और आख़िर एक बार किसी इन्द्रजाली की तरह, कोई ऋद्धि-शरीर धर कर तुम मेरे पास आने को विवश हो ही गये थे । लेकिन कितने दुर्लभ, कितने अस्पृश्य और आग्रा । और पल मात्र अन्तर्धान हो गये थे । मैं हार कर अपने में ही मर रही । तुम मेरी वेदना को अनन्त गुना करके चले गये । मुझे अपनी होमाग्नि के हुताशन पर लिटा गये ।
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वैशाली में किसी को भी तुम्हारे आगमन का पता नहीं लग पाता था । पर जाने कैसे मुझे प्रत्यक्ष दीख जाता था, कि तुम आये हो, और किस विजन मन्दिर या खण्डहर में ठहरे हो । चाहती, तो मैं तुम्हारे उन एकान्तों में तुम्हारा पीछा कर सकती थी । तुम्हारे सामने उपस्थित हो कर, तुम्हारी एकाकी समाधि पर टूट सकती थी । और तुम्हारी कायोत्सर्ग में लीन समाधिस्थ काया को, अपनी छाती में भर कर अपने महल में उठा लाती, और तुम्हारे साथ मनमानी कर लेती। क्या तुम मुझे मने कर सकते थे ? नहीं, मेरी गोद में शिशु की तरह लुढ़क कर सो जाते, और मैं तुम्हें अपने अतल गर्भ में खींच कर बन्दी बना लेती । तुम मेरा आँचल झटक कर जा नहीं सकते थे । मुझ से तुम्हारे लिये कहीं बचत नहीं थी । वह तुम्हारी नियति नहीं, वह तुम्हारा स्वधर्म नहीं । इस बात को मुझ से अधिक कौन जान सकता है !
....लेकिन नहीं, मैं तुम्हारे पीछे नहीं आयी । मैंने स्वेच्छाचार नहीं किया । क्यों कि तुम मेरी लज्जा थे, और मैं तुम्हारी मर्यादा थी । यह मेरा शरीर तक जानता था। तुम सकल चराचर के थे। तो इतनी अधम कैसे होती, कि तुम्हें अपने अन्तर्वासक (अधोवसन) की पटली में क़ैद कर लेती, अपनी कंचुकी में समेट कर, अपने सघन स्तनों के बीच की बिसतन्तु गहिरिमा में लुप्त और गुप्त कर देती सदा के लिये । आम्रपाली की मोहिनी में कुछ भी अशक्य नहीं था । लेकिन नहीं, मैं अपने विराट् पुरुष को इतना छोटा कैसे कर सकती थी । तुम्हारी प्रिया हो कर इतनी नीच कैसे हो सकती थी, कि जड़-जंगम प्राणि मात्र से तुम को छीन कर, तुम्हें अपनी तिज़ोरी में बन्द कर देती । अपने हिमवान् को, अपनी गंगोत्री की गुहा में कैसे पूर सकती थी, कैसे रूंध सकती थी । तुम्हें गंगा बन कर त्रिलोकी में बहा देना ही, मेरा एक मात्र सुख हो सकता था ।
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