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________________ रखने को मैं लाचार हो गई। और वहीं किवाड़ की ओट मर रही। मगर तुमने वैशाली की सरे राह मेरी लाज का आँचल उतार कर, उसकी चिन्दियाँ उड़ा दीं। और अपने अन्तरिक्ष-पथ पर बेखटक और निर्मम भाव से आगे बढ़ गये। खुले चौराहे पर तुम मेरा अपमान कर गये। मेरे सामने न आने पर, सारे भद्र लोक के मन में यही तो लगा होगा, कि कलंकिनी वेश्या है न, कौन-सा मुँह ले कर कलमुँही पापिन भगवान् के सामने आती? ठीक है, मेरी लाज, मेरा मान तुम हो, और तुमने उसके साथ मनमानी की, तो उसमें मेरा क्या दखल है, क्या बस है ? और मेरी लाज लुटी, मेरा मान खण्डित हुआ, तो क्या तुम्हारी ही लज्जा नहीं लुटी, तुम्हारा ही मान चूर-चूर न हुआ ? लेकिन भूल गई, तुम तो वीतराग हो । वीतराग को लज्जा कैसी, मान कैसा? __ तुम्हारी ठोकर झेलने को तो यह छाती जन्मी ही है। लेकिन किसी भगवान् की ठोकर सहने को आम्रपाली पृथ्वी पर नहीं आई है। लोक तुम्हें अब केवल भगवान् के रूप में जानता है। त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर के रूप में पूजता है। लोक के और मेरे बीच, तुम एक स्पर्शातीत, ऊर्धवासीन परम परमेश्वर बन कर खड़े हो। वहाँ तुम्हारे साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। कोई निजत्व, कोई अपनत्व भगवत्ता में सम्भव नहीं। तुम मेरे लिये अनिवार्य हो सकते हो, लेकिन मैं तुम्हारे लिये अनिवार्य नहीं हो सकती। तुम केवल सब के हो सकते हो, किसी एक के हो कर नहीं रह सकते। लेकिन मैं केवल तुम्हारी हो कर रहने को मजबूर हो गई ! __ और मेरी ऐसी लाचारी हो गई, कि मैं एकान्त रूप से तुम्हारी हो कर रह गई। बिन जाने, बिन देखे, बिन सुने, बिन बूझे, अनजाने ही तुम्हें अनन्य भाव से अपना मान बैठी। और वहीं सबसे बड़ी त्रासदी हो गई। केवल वैशाली की ही नहीं, सारे आर्यावर्त की सुवर्ण-क्रीता लोक-वधू, वेश्या, वारांगना और त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर को प्यार करने की हिमाक़त करे? सकल चराचर के समान प्रेमी भगवान् पर अपना अधिकार जमाये ? बस, एक नादानी अनजान में, जाने किस बेबूझ, निगढ़ परवशता में हो गई, और मेरा बिछौना सदा के लिये काँटों और लपटों पर बिछ गया। उस दिन के बाद, तुम्हारे और मेरे बीच एक नंगी तलवार लटक गई। एक ज्वालाओं की दीवार खड़ी हो गई। एक सत्यानाशी हुताशन हमारे बीच खेलता रहा । तुम्हें प्यार करना मेरे लिये, आकाश के पलँग पर वासुकी नाग से रमण करने जैसा ही दुर्वह, दुःसह और भयावह हो गया। मैं तो वेश्या हैं, वही जन्मी हूँ। मेरे लिये लज्जा क्या, मर्यादा क्या ? निर्लज्ज होने के लिये ही तो मैं पैदा हुई हूँ। मैं तो चौराहों पर नंगी की Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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