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________________ तो सच ही है, कि तुमने बरसों के फ़ौलाद से जड़े पश्चिमी नगर-द्वार को अपने एक कटाक्ष से तोड़ कर, मेरी राह, मेरे पौर-द्वार से गुज़रना स्वीकार किया। तुम तो इच्छा से ऊपर हो, लेकिन मेरी इच्छा को अपनी बना कर, तुम मेरी राह आये और मेरे भवन-पौर पर हठात् थम गये। किस लिये ? तुम किसी कारण से, किसी के लिये तो कुछ करते नहीं। लेकिन यह तो एक प्रत्यक्ष तथ्य और सत्य है, कि आम्रपाली की पुकार को तुम टाल नहीं सके। और विवश हुए, मेरी राह से गुजरने को, मेरे द्वार पर ठिठक जाने को। फिर भी तुम्हारी अगवानी को मैं द्वार पर न आ सकी। तुम्हारी आरती उतारने का भाग्य मेरा न हो सका। आम्रपाली की लज्जा के मालिक ने ही, सारी वैशाली के देखते उसकी लाज उतार ली। मैं न आ सकी सामने, नहीं कर सकी तुम्हारी अगवानी की आरती। तो इसमें मेरा क्या दोष था? ओ बलात्कारी, तुम तो अस्तित्व छीनते आये। हरण करने आये थे, सो देखते ही हार गई, और हर ली गई। लेकिन इस बात को कौन जानेगा। लोक में तो मेरी लज्जा धूल में मिल गई। ठीक है, तुम्ही सारी मज़ियों के मालिक हो, हमारे बस का क्या है यहाँ ! लेकिन पूछती हूँ, लोक की सारी मर्यादाएँ लोप कर, तुम एक गणिका के द्वार आने को लाचार क्यों हुए थे? क्यों रुक गये थे मेरे पौर के सामने ? "तो स्वयम् ही भीतर आ कर मुझ कलमुहीं कलंकिनी को कृतार्थ कर देते, तो तुम्हारी वीतरागता में कौन-सा बट्टा लग जाता ? वीतराग को ऐसा आग्रह क्यों, कि नहीं, वह एक व्यक्ति के घर में स्वयम् नहीं जा सकता। विवर्जित अवधूत अर्हत् तो हर मर्यादा से ऊपर सुने जाते हैं। विधि-निषेध से वे बाध्य नहीं। फिर क्यों न तुम्हारा पैर उठ सका मेरे पास आने को? किसने रोक दिया तुम्हें ? लोक-मर्यादा ने? शास्त्र-विधान ने? किसी धर्म-शासन ने? किसी आचार-संहिता ने ? किसी परम्परा ने ? तो तुम परम स्वतंत्र अर्हत् कैसे? भगवान् को बाधा-बन्धन कैसा? आ जाते, तो आरती में हाथ मेरे हिलते या नहीं, कौन जाने, पर मेरे रोयें-रोयें से अनगिन जोतें उठ कर तुम्हारी आरती उतार देतीं, यह उस क्षण के रोमांचन में मैंने अनुभव कर लिया था। लेकिन तुम नहीं आये। लोक-समाज कहीं यह न सोच ले, कि तुम एक वेश्या के प्रीतम हो। कि यह रूपजीवा व्यभिचारिणी तुम्हारे जी में एक लौ की तरह लहक उठती है। तुम्हारी विशुद्ध वीतरागता में इसके लिये कहाँ गुंजाइश है ! यह मैं खूब जानती थी। इसी लिये, हृदय टूक-टूक हो गया तुम्हारे चरणों में आ पड़ने को, फिर भी सामने न आ सकी। तुम भगवान् हो कर आये थे, और मुझे तुम्हारे भगवान् में रंच भी रुचि नहीं थी। लेकिन तुम्हारी भगवत्ता की लाज Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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