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________________ के हर अवसर को मुकर दिया था, तब भी उसकी भोग्यता ने मुझे इतना सम्मोहन-कीलित कर दिया था, कि यहाँ का कुछ भी मेरा भोग्य न रह पाया। "ओह, मेरी त्रिवली में यह कैसी विदग्ध कजरारी याद टीस उठी है ? स्वप्न-तन्द्रा टूट गई है। तुम्हारे अलौकिक माया-राज्य की कारा से बाहर निकल आई हूँ। ठीक मानवी नारी : रक्त-मांस से स्पन्दित रमणी। निर्लज्ज हो कर कहती हूँ, ओ निर्दय वीतराग, मैं हूँ तुम्हारी कामिनी। तुम्हारी अन्तरिक्षा ब्राह्मी नहीं : ठीक ठोस पृथ्वी-मैं आम्रपाली। काश, तुमने मेरी व्यथा को समझा होता ! सुनोगे आज मेरी कथा ? सुनो या न सुनो, आज बन्ध टूट गये हैं, और सुनाये बिना न रह सकूँगी।" ...कल पहली बार तुम्हारे रूप की झलक देखी। और देखते ही एक ऐसा वैद्युतिक रोमांचन हुआ, कि देह हाथ से निकल गई। तुम्हारी वह चितवन एक बार मेरे द्वार की ओर उठी, और किवाड़ की ओट अपलक थमी मेरी आँखों पर, जैसे एक अप्रतिवार्य मोहिनी का उल्कापात-सा हुआ। हठात् जगत् के तमाम रूपाकार लुप्त होते दिखाई पड़े। अपने ही रूप को विलय होते प्रत्यक्ष देखा। और जैसे किसी ने सहसा ही मुझ से मेरा शरीर छीन लिया। तुमने...? पता नहीं। मेरी मुंद गई आँखों में सौन्दर्य की ऐसी आँधियाँ उठीं, कि वे मुझे निरी हवा बना कर उड़ा ले गईं। और उस उड़ान में से मुड़ कर मैंने पीछे देखा, तो पाया कि आम्रपाली द्वार की शालभंजिका की तरह शिलीभूत हो कर, किवाड़ की ओट की दर्पणी दीवार में मूर्ति की तरह जड़ी रह गई है। एक विचित्र विदग्ध त्रिभंगी मुद्रा में नम्रीभूत, और अचल है उसके हाथ का सहस्रदीप नीराजन । तुम जा चुके थे। लेकिन उसके पहले ही एक इन्द्रजाली की जादुई माया मुझे उड़ा ले गई थी। बलात् मेरा हरण कर गयी थी। ..."उसके बाद क्या हुआ, मुझे पता नहीं। मेरी उस मूच्छित काया को कब किसने उठाया, कहाँ लिटाया, कब और कौन मुझे यहाँ लाया, क्या उपचार परिचर्या हुई। कुछ पता नहीं। आम्रपाली की सेवा में परिचारिका न हो, ऐसा कभी हुआ नहीं। मेरे अन्तिम एकान्त के क्षणों में भी, कहीं नेपथ्य में कोई चारिका सदा प्रस्तुत रही। लेकिन आज इस भीतर से अर्गलित कक्ष में, निपट अकेली छोड़ दी गयी हूँ। किसी संग या सेवा की चाह भी नहीं है। मगर स्पष्ट देख रही हूँ, कि शासन यहाँ मेरा नहीं, किसी दूसरे का है। दुनिया की कोई सत्ता आज तक आम्रपाली पर शासन न कर सकी। लेकिन आज? आज मैं किसी के कारागार की बन्दिनी हूँ ! जान-बूझ कर तो तुम कुछ करते नहीं। वीतराग अकर्ता हो। पर अनजाने ही सृजन, स्थिति, संहार, निग्रह और अनुगृह रूप, परमेश्वर के पंच कृत्य तुमसे होते रहते हैं, ऐसा मैंने वेद के महाज्ञानियों से सुना है। लेकिन यह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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