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________________ ... पलंग के पास पड़ी वैदूर्य रत्न की चौकी पर, सूर्यकान्त मणि के प्याले में कल्प-लंता की मदिरा उफन रही है। कितने दिन हो गये सुरापान किये; याद नहीं आता। मेरे हृदय के अनाहत कमल में दिन-रात कोई ऐसी वारुणी स्वतः प्रस्रवित होती रहती है, कि मेरा अंग-अंग वायुमान हो कर सदा झूमता रहता है। आँखों में खुमार के रतनारे समुद्र मचलते रहते हैं। सारे कक्ष में केतकी के पीले पराग की नीहार-सी छायी हुई है। उद्यान में झीमते कचनारों की बनफ़्शई गन्ध से, सारा वातावरण कैसी वाष्पित ऊष्मा से व्याकुल हो उठा है। ऐसे में कोई कैसे इस देह की मांसल सीमा-बद्धता को सहे ? जी चाहता है कि भाग कर चली जाऊँ कहीं, पृथ्वी और आकाश । के पार, लोक के तनु-वातवलयों के पार। अलोकाकाश की निश्चेतन शून्यता में विसर्जित हो कर खो जाऊँ। पर इस बन्द कक्ष में, जाने कौन एक अनिर्वार उपस्थिति मुझे चारों ओर से अपने बाहुबन्ध में जकड़े हुए है। हाय, कितना निर्दय है वह कोई, जिसके आश्लेष की जकड़न तो महसूस होती है, लेकिन वह प्रकाम्य सुन्दर बाहुबन्ध मेरी आँखों से छीन लिया गया है। एक विचित्र अदृश्यता के लीला-चंचल प्रदेश में, अचिन्त्य निगूढ़ सम्भावनाओं के प्रकम्पनों से घिरी हूँ। मानो कि अभी कोई यवनिका किसी भी परमाणु पर से उठ सकती है, और जाने क्या-क्या दिखाई-सुनाई पड़ जायेगा ! ___ अज्ञान्त दूरान्तों में से यह कैसी संगीत ध्वनि आ रही है। जैसे गन्धमादन पर्वत पर रक्खी सामुद्रिकवीणा की पानीली गहनता में से, आपोआप 'पूरिया-धनाश्री' की विरह-विकल रागिनी उठ रही है। नेपथ्य में यह कौन किन्नरी, रात-दिन करुण विहाग गाती रहती है ? ... कुछ याद-सा आ रहा है। कुछ देखा है मैंने कहीं, कभी भी। "नहीं, अभी-अभी। अभी और यहाँ। कल, परसों, जन्मान्तर में, या इस क्षण-क्या अन्तर पड़ता है। क्यों कि जो देखा है, वह समय, दिशा, काल से बाहर होकर भी, ठीक समय में है, रूप में है, पिण्ड में है। इन्द्रिय-गोचर है, अत्यन्त पार्थिव और लौकिक है। मेरे इस शरीर, इस सारे रूपोमय जगत् से अधिक इन्द्रियग्राह्य और प्रत्यक्ष। बाहर के इन सारे रूपों को हम छू कर भी जैसे छु नहीं पाते। ये परोक्ष हैं, और हमारी छुवन को हर पल धोखा देते रहते हैं। हम इन्हें पकड़े रहने की भ्रान्ति में होते हैं, और ये लहरों की तरह हमारी उँगलियों के बीच से फिसल कर जाने कहाँ लुप्त होते रहते हैं। लेकिन जो देखा है, वह इतना प्रत्यक्ष, गोचर और अनुभव्य है, कि मेरी इस देह के अपने ही स्पर्श से भी कई गुना अधिक स्पृश्य ग्राह्य और ज्ञेय है। संसार के चरम भोग्य से हज़ार गुना अधिक भोग्य । इसीलिये तो जब उसे देखा नहीं था, देखने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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