SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मसहरी, कुन्दफूलों की जालियों से गुँथी हुई । सामने के वातायन पर झूलती बेला - मालती की जाली में से, हाल ही में उदय हुआ प्रतिपदा का विशाल चन्द्रमा, आम्र- कानन की मँजरियों पर खड़ा, कोयल की डाक में मुझे टोक रहा है । मेरा नाम और कुशल पूछ रहा है । किस अदृश्यमान निर्मम पुरुष का यह प्रभा-मण्डल, मुझे दूर से चिढ़ा रहा है ? नवमल्लिका के वन जैसे इस पीताभ चन्द्रालय में छुप कर कौन बेदर्दी, मेरी पीर की दाह को अधिक-अधिक दहका भी रहा है, और उस पर परम शीतलकारी फुहारें भी बरसा रहा है। उसकी किरणें चन्द्रकान्त मणि की इस मसहरी को छू कर, इसमें से जैसे मकरन्द नीहार बरसा कर मुझे बेमालूम छुहला और नहला रही हैं । २९ देख रही हूँ, प्रियंगु-लता जैसा उदीयमान रातुल चन्द्रमा, मेरे देखते-देखते चम्पक फूल की कणिका जैसा पीला हो चला है । उद्यान में अभी-अभी फूली जपाकुसुम-सी सन्ध्या कहाँ विलुप्त हो गई ? क्रीड़ा-सरोवर के तमाल- वनों से निकल कर एक नीली- साँवली अँधियारी धीरे-धीरे इस कक्ष में व्यापती चली जा रही है। मणि-कुट्टिम वातायनों पर झूलती सिन्धुवार फूलों की, मलय-वायु में डोलती लड़ियों में, जलकान्त बादलों की झिल्लिम यवनिकाएँ हौले-हौले हिल रही हैं। याद आ रहे हैं कहीं देखे वे गुफा -द्वार, जिन पर निसर्ग ने ही घिरते बादलों के परदे लटका दिये थे, और गुफा के भीतर रति - क्रीड़ा में लीन गन्धर्व - मिथुन के लिये, गुफा में चमकती वनौषधियाँ ही सुरत- प्रदीप हो कर झलमला उठी थीं । और उनके सौम्य आलोक में, मानो मैं अपने कितने ही प्राक्तन जन्मों की कथाएँ इस चान्द्रम सन्ध्या में पढ़ रही हूँ । कक्ष का द्वार भीतर से बन्द है । कोई परिचारिका नहीं, सखी सहेली नहीं । एक स्तब्ध घनीभूत निर्जनता में, मैं कितनी अकेली हूँ । धमनियों के रक्तछन्द में निरन्तर प्रवाहित अनहद नाद को, मैं इस अनाहत नीरवता में कितना साफ़ सुन रही हूँ । अनवरत ध्वनि की इस गुंजानता में, मेरी देह कर्पूर की तरह घुली जा रही है। एक अन्तहीन कल्प-निद्रा में से अभी-अभी जागी हूँ। मैं कहाँ चली गई थी ? किस नीलिमा के वन में खो गई थी । "अरे यह किसने कहा : 'तच्चिन्मयो नीलिमा' । चिन्मय नीलिमा का वह प्रदेश कहाँ छट गया ? 2 गये हैं । कौन, बन्द कर दी ...इस क्षण तो मैं ठीक अपनी मृण्मय पुद्गल देह में, इस शैया में पड़ी हूँ, इस कक्ष में क़ैद हूँ । मानव मात्र मुझे छोड़ कर चले कब ले आया मुझे इस कक्ष में ? किसने यह अर्गला भीतर से है ? इस क्षण से पूर्व तो मैं यहाँ थी ही नहीं । फिर किसने दी है, इस कक्ष के मणिखचित हाथी - दाँत के किवाड़ों पर यह साँकल । सारे लोक से निर्वासित कर, किसने मुझे इस कक्ष के द्वीप में भीतर से जड़ बन्दी बना दिया है ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy