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हाँ, मैं अपने अत्यन्त निजी अन्तर्कक्ष में हूँ। पर ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे मैं यहाँ पहली बार आई हूँ। या फिर ऐसा कि अनादि में जाने कब यहाँ थी। और फिर निकल पड़ी थी, असंख्यात द्वीप-समुद्रों की यात्रा पर। तमाम देखे-अनदेखे देश-देशान्तरों की याद आ रही है। कितने जन्मान्तर, लोकान्तर, कालान्तर एक साथ मानो इस क्षण जी रही हूँ। किसी भूगोल में नहीं हूँ, खगोल में नहीं हूँ। किसी भी जाने हुए लोकशास्त्र के प्रदेश या परिमाण में नहीं हूँ।
फिर भी ठीक अपने घर में हूँ, अपने आलय में हैं, इस देह से भी अधिक समीप के अपने अन्तर्तम कक्ष में हूँ। सप्तभौमिक प्रासाद के विशाल उद्यान में, विभिन्न ऋतुओं और विलासों के जाने कितने आवास हैं। इस एक ही महल में जाने कितने भवन, आलय, आवास, कक्ष हैं। वसन्तावास, ग्रीष्मावास, पावस-प्रासाद, शरद-महालय, हेमन्त-हर्म्य, शिशिर-सौध। नहीं पता चल रहा, किस आवास के किस खास कमरे में हूँ। इतनी ही संचेतना है, कि एकदम स्वकीय अपने कक्ष में हूँ, अपनी अत्यन्त निजी भूमि पर हूँ।
देख रही हूँ, इस कमरे में और बाहर के विराट् प्रांगण में, तमाम प्रकृति इस समय अपनी छहों ऋतुओं के साथ उपस्थित है। मैं अंगारों की शैया पर लेटी हूँ, फिर भी मेरे ऊपर-नीचे चारों ओर फूलों की राशियाँ छायी हैं। मैं जैसे अग्नि के आलय में हूँ, मेरी जलन की सीमा नहीं। मानुषोत्तर है मेरी देह की यह दाह, यह तपन । फिर भी इस कक्ष की शीतलता कितनी गहरी है। पृथ्वी-गर्भ की सारभूत ठंडक, आर्द्रा की भीनी माटी की गन्ध बन कर यहाँ व्याप्त है। हिमानी प्रदेशों की अथाह खानों से प्राप्त मरकत और महानील मणि की शिलाओं से निर्मित है यह कक्ष । अन्तिम समुद्र के अतल से प्राप्त मुक्ता, शुक्ति और प्रवालों से जड़ी है इसकी फ़र्श। शरद ऋतु का सुनील आकाश ही मानो इसकी छत बन गया है। और उसमें लटके अलभ्य समुद्र-गर्भी शंखों और सीपों के फ़ानूसों में. नील-हरित रत्नों के प्रदीप बहुत ही महीन प्रभा से आलोकित हैं। मानो मुझे हुताशन में से उठा कर यहाँ, शायद इस ग्रीष्मावास में लिटा दिया गया है। लेकिन फिर भी यह क्या है, कि यहाँ सारी ऋतुओं की पुष्प-लीला एक साथ चल रही है। सारे ऋतुमान, जलमान, वायुमान-यहाँ एकाग्र अनुभूत हो रहे हैं।
अकल्प्य शीतल पृथ्वी-गर्भ से प्राप्त वासुकी नाग की फणामणियों से निर्मित है मेरा पलंग। मर्कत-मुक्ता की भीनी आभा वाली झालरों में से, जैसे जल और वनस्पतियों का तात्विक अन्तःसार झर रहा है। मन्दार और पारिजात फूलों की इस सघन दलदार आर्द्र शैया में भी, मैं एक नंगी लपट की तरह छटपटाती हुई लेटी हूँ। और ऊपर छायी है, चन्द्रकान्त मणियों की
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