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महावीर पर अब तक कहीं कोई पुनर्सर्जनात्मक काम हुआ भी नहीं था। और जन्मजात जैन होने से महावीर के साथ मेरा कोई आन्तरिक सायुज्य भी रहा ही होगा। वैसे प्रकटतः कृष्ण ही सदा मेरे स्वप्न के महानायक
लेकिन कठोर वीतरागी, दुर्दान्त विरागी महावीर को मैंने अपनी ही शर्तों पर रचा है, उनकी शर्तों पर नहीं। मैंने उन्हें उनके लिये, उनके पूजनवन्दन के लिए नहीं लिखा है, अपने ही लिए लिखा है, अपनी अनन्त वासना का उत्तर पाने के लिए लिखा है। और सचमुच चमत्कार घटित हुआ। महावीर मेरी शर्तों पर ही मेरे भीतर ढलते चले आये। मेरे जीवन की सारी द्वंद्वात्मक लीलाओं में, वे द्वंद्वातीत प्रभु अनर्गल, अबाध, विवर्जित भाव से खेलते चले गये। मेरी सारी ऐन्द्रिक तीव्रताओं और मानवीय कामनावासनाओं को उन्होंने नकारा नहीं, स्वीकारा, उन्हें आत्मसात् किया। विधिनिषेध का द्वंद्व ही मानों उन्होंने मुझ में से समाप्त कर दिया। एक ऐसा समुद्र, जो सतह पर समस्त वासना से उत्ताल तरंगित है, पर तल में ध्रुव निश्चल भी है, और अमर्याद होकर भी अपनी मर्यादा का वह स्वच्छन्द स्वामी है। ऐसी ही कोई जीवन्मुक्त सामुद्री चेतना मुझ में अनायास आविर्भूत हो गई है। सान्त, सीमित और भंगुर में, अनन्त-असीम-अमर-शाश्वत के सौन्दर्य, संवेदन और सम्वादिता (हार्मनी) को जीने की एक अजीब-परारासायनिक ( Alchemic ) अनुभूति मुझमें सदा सक्रिय रहती है। ___इस तरह ‘अनुत्तर योगी' में अनन्त पुरुष, हमारे सान्त जीवन-जगत् में सहज भाबेन लीलायमान हुआ है । हमारी सारी वासना-कामनाओं को संपूर्ण वर्जनाहीन स्वीकृति देकर, उसने हम जहाँ हैं---उसी मुक़ाम से ऊपर उठा देने का एक अजीब करिश्मा कर दिखाया है। प्रस्तुत खण्ड के आम्रपाली वाले प्रकरण के दोनों अध्यायों में, और बाद की इन बीस कहानियों में भी महावीर का यह वर्जनाहीन सम्पूर्ण मानवीय स्वीकार अपनी परा सीमा पर मूर्त हो सका है।
अतिमानव ने यहाँ मानव होना स्वीकारा है। भगवान ने यहाँ इंसान को गलबाँही डालकर, उसके साथ उसके सारे अँधेरों और वासनाओं में चलना, कुबूल फ़र्माया है । __ मेरी एक कविता के उपसंहार में यह बात बड़ी तीखी, तल्ख, गुस्ताख़ और निर्भीक भाषा में व्यक्त हुई है :
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