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मेरी रचना का अनुत्तर योगी, इस महानगर की अन्धी गलियों में
आवारागर्दी कर रहा है। उसके पद-संचार से मदिरालय में, मुक्ति का महोत्सव हो गया है : .. वेश्यालयों में सौहाग-शयाएँ बिछ गई हैं। "कल रात 'डंकन रोड' की एक अन्धी कोठरी में कुंवारी मरियम ने एक और ईसा को जन्म दिया है : सिफ़लिस और सुजान के कोढ़ी अंधेरों में मनुष्य का सर्वहारा, दिशाहारा बेटा अपनी मुक्ति खोज रहा है। "और मेरे अनुत्तर योगी प्रभु हर कदम पर उसके साथ गलबांही डाले चल रहे हैं।"
मेरे महावीर अगर इस कदर दिन-रात मेरे भीतर जीते, चलते, बोलते, बरतते हुए, मेरे संग तदाकार न चलते होते, तो 'अनुत्तर योगी' की रचना करने का कष्ट उठाना मैं किसी भी शर्त पर मंजूर नहीं कर सकता था।
-वीरेन्द्रकुमार जैन
२१ नवम्बर १९८१ गोविन्द निवास, सरोजिनी रोड़, विलेपारले (पश्चिम); बम्बई-५६
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