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ऊपर उल्लिखित ये बीस कहानियाँ, इसका एक साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं। इनमें किस्सागोई या कथा-कथन का बहाव अनायास आया है, और इन्हें लिखते वक्त एक अजीब मास्टरी और आत्म-प्रतीति का आनन्द मुझे बराबर मिलता रहा। समग्र ‘अनुत्तर योगी' में, और खास कर इन कहानियों में, मिथक और प्रतीक के अलावा, लोक-कथा, दृष्टान्त-कथा और दन्त-कथा, के परम्परागत सशक्त कथा-तत्त्वों का भी बड़ी खूबसूरती से विनियोग हो सका है।
बचपन से ही सान्त, सीमित, भंगुर जगत् मुझे ठहराव या मुकाम न दे सका। मेरा बालक चित्त सदा अनन्त, असीम, विराट और किसी अमर शाश्वती ( eternity ) के सपने देखता रहा, उसमें अपना घर मुकाम खोजता रहा। इसी कारण शुरू से ही मेरी रचना में एक कॉस्मिक विजन का प्रकाश आये बिना न रह सका। इस पृथ्वी के वास्तविक यथार्थ से; मुझे उस कॉस्मिक भूमा का यथार्थ ही अधिक सत्य और स्थायी लगता रहा। मानों कि यहाँ का सब कुछ उसी की एक सीमित अवम्बिबित (deflected) अभिव्यक्ति मात्र है--दर्पण में दृश्यमान नगरी की तरह।
बचपन से ही शर्त लग गई थी, कि यदि मुझे जीना है, तो उस अनन्तअसीम को यहाँ के मेरे जीवन में मूर्त और लीलायमान होना पड़ेगा। उसके बिना मेरी महावासना को विराम, तृप्ति या चैन मिल नहीं सकता। अपनी इस अभीप्सा के चलते ही मेरा सृजन स्वप्न, फन्तासी और मिथक के शाश्वत और उत्तीर्ण माध्यमों से ही सम्भव हो सका। इसी से अपनी मुक्त त्रासदी (भोगे हुए यथार्थ) को रचना में उलीचना मुझे कभी रुचिकर न हुआ । उसे लिख कर उसे उभारना और समारोहित करना मुझे पराजय और विफलता को अंगीकार करना लगा। पर मेरी जीवन-वासना पराजय न स्वीकार सकी। वह मानवेतर चेतना-प्रदेशों में, आत्मा के गहिरतम गोपन कक्षों में, एक पूर्ण और अनन्त जीवन के अमृत स्रोतों को खोजती चली गई। ____ अपने सृजनात्मक जीवन के इस छोर पर, हठात् मुझ में पुकार हुई कि, एक विराट् रचना की भूमा में मैं किसी अनन्त पुरुष का सृजन करूँ। लेकिन ऐसा पुरुष, जिसमें सीमित अपूर्ण मानव की सारी त्रासद सम्वेदनाओं का निविड़तम, तीव्रतम बोध भी हो, और जो ठीक उसी मुकाम पर, मनुष्य की सारी कमजोरियों और कमियों को ज्यों का त्यों स्वीकार-समेट कर संवेदनात्मक तीव्रता और सर्वभेदी वासना के ज़ोर से ही, सीमित मनुष्य को असीम की भूमा से जीवन्त और आपूरित कर दे। प्रसंगात् मैंने इसके लिए महावीर को चुना, या कि वही माध्यम मुझे मानो प्रदान किया गया।
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