SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 384
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ महावीर का शिष्य होने के लिये वह एक अत्यन्त उपयुक्त पात्र था। गौरवर्ण, सुकुमार, इकहरे बदन का यह लड़का आरपार सरल, निष्पाप था। भीतर-बाहर वह पारदर्श रूप से एक था। अपने भीतर की सारी अवचेतन तहों, भूखों, प्यासों, वासनाओं और अँधेरों को जैसे वह अपनी हथेलियों पर लिये हुए चलता था। इतिहास में चिरकाल से शोषित-निपीड़ित दलित परित्यक्त सर्वहारा वर्ग के जन्मान्तरों से संचित अभाव, बुभुक्षा, दमित तृष्णा-वासना, आत्महीनता, आत्म-दैन्य, विक्षोभ, व्यग्र-विद्रूप, कटुता, अदम्य और रुद्र क्रोध तथा विक्षोभ का वह पंजीभूत अवतार था। फिर भी उसके भीतर जैसे कोई शाश्व सरल शिशु सदा अकारण किलकारियाँ करता रहता था। निपट निरीह, भोला, मूर्ख, अकिंचन एक बालक । लेकिन पूर्वजन्म के विकास-संस्कार से वह एक जन्मजात कलाकार था। अपनी साँस में कविता का सौन्दर्य-बोध, और आँखों में चित्रकला का रंगीन विश्व ले कर ही वह पैदा हुआ था। उसमें कोई असाधारण पारदर्शी प्रतिभा थी, एक सर्वभेदी जिज्ञासा और अनिर्वार मुमुक्षा थी। मंखवंश में जन्म लेने के कारण, मंखों के परम्परागत पेशे--कविता, चित्रकला और गायन की शिक्षा भी उसने अपने पिता से प्राप्त की थी। क्योंकि वही उनकी आजीविका का आधार था। वह चिरकाल के नंगे, भूखे, अवहेलित, दलित अनगार सर्वहारा का एक ऐतिहासिक अवतरण था। अपने सामने आने वाले जीवन के हर यथार्थ और पाखण्ड को वह अपने व्यंग्र-विद्रूप से नंगा कर के ही चैन लेता था। कहीं कुछ भी असत्य, असुन्दर, कपटपूर्ण, दम्भी मायाचार उसे सह्य नहीं था। वैसा कुछ भी सामने आने पर, वह तुरन्त रुद्र क्रोध से व्यंग-अट्टहास करता हुआ, उस पर कवितात्मक वाक्-प्रहार करता था। उसकी गालियाँ भी कविताएँ ही होती थीं। उसकी कषायों में भी भाव, रस और अलंकार था, चित्रमयता और काव्यात्मकता थी। मानो कि महावीर की स्वाभाविक विधायक चेतना की ही वह एक विभावात्मक और विनाशक प्रतिच्छबि था। महावीर के सकार को जगत् में स्थापित करने के लिए ही, मानो वह प्रचण्ड, दुर्दान्त अन्तिम नकार और मूर्तिमान विध्वंस होकर जगत् में चल रहा था। महावीर के 'थीसिस' के लिए, मानो कि वही एकमेव और अनिर्वार और नितान्त उपयुक्त ‘एण्टी-थीसिस' था। और इस 'एण्टी-थीसिस' की विस्फोटक नोक पर से ही--मानो महावीर के आगामी युग-तीर्थ के 'सिंथेसिस' (सम्वादसामंजस्य) को जैसे प्रकट होना था। इस सारे परिप्रेक्ष्य के चलते ही, महावीर के साथ के इन छह वर्षों में वह अपने समय का और आने वाले समय का एक प्रचण्ड विद्रूपकार और व्यंगकार हो कर प्रकट हुआ था। यह एक अत्यन्त स्वाभाविक मनो Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy