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________________ वैज्ञानिक स्थिति है। जैनों की काल-निर्धारण के सन्दर्भ में, हम इसी कारण उसे 'अवसर्पिणी (पतनोन्मुख) काल' के एक विदूषक के रूप में साक्षात् करते हैं। उसके इस बुनियादी चरित्र का विकास किस तरह आगे बढ़ता हुआ, अपनी चरम परिणति पर पहुँचता है, उसके सृजनात्मक स्वरूप को पाठक कथा में पढ़ कर स्वयम् ही समीचीन रूप से अवबोधित कर सकेंगे। उन सारे कथा-सूत्रों को लेकर यहाँ उनका विश्लेषण करना एक अनावश्यक और निरर्थक विस्तार ही होगा। द्वितीय खंड में छह वर्ष महावीर के साथ विचरण करने के बाद, एक ऐसी घटना घटती है, जो उसके महावीर से बिदा लेने का एक सचोट कारण बन जाती है। किसी विशिष्ट कथा-प्रसंग में वह महावीर से अग्नि-लेश्या सिद्ध करने की विधि सीख लेता है। वह कठोर तपस्या से उपलब्ध होने वाली एक ऐसी मारक शक्ति होती है, जो प्रतिरोधी-विरोधी या प्रतिद्वंद्वी को क्षण मात्र में जला कर भस्म कर सकती है। संयोगात् किसी तपस्वी में यदि क्रोध का विस्फूर्जन हो उठे, तो उसकी नाभि से उसकी चिर संचित तपस्या की चरमाग्नि विस्फोटित हो कर, सामने उपस्थित विरोधी को पल मात्र में खाक कर देती है। महावीर को गोशालक अन्तरतम से प्यार करता था, पर उनकी अभिजात वर्गीय प्रभुता के प्रति एक तीव्र दबी ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा भी उसमें सदा सुलगती रहती थी। वे प्रभु मानो उसके परम मित्र और चरम शत्रु एक साथ थे। सो जब प्रसंगात् प्रभु से उसे अग्नि-लेश्या सिद्ध करने की विद्या प्राप्त हो गई, तो उसके अवचेतन में एक अदम्य जिगीषा (विजयाकांक्षा) प्रज्ज्वलित हो उठी। अनजाने ही उसमें एक भयंकर संकल्प जागा, कि वह प्रभुओं के प्रभु महावीर को भी पराजित कर, जब तक अपनी कोई प्रतिप्रभुता स्थापित न कर ले, तब तक वह चैन न लेगा। इसी अनिर्वार पुकार के धक्के से चालित हो कर, एक दिन वह मगध के एक चौराहे पर महावीर से बिदा ले कर, अपनी नियति की अटल राह पर चल पड़ा। ___मुहतों तक भटकता भूखा-प्यासा, थका-हारा एक शाम वह श्रावस्ती की निकटवर्ती अचीरवती नदी के तट पर देवद्रुमों की छाया में आ कर एक शिलाखण्ड पर बैठ गया। वहीं उसे नींद लग गई। सबेरे जाग कर ताजी हवा से वह स्फुरित हो आया। उस प्रेरणा से उन्मेषित हो कर वह एक गहरी सम्वेदना से आप्राण भर आया। अपने उद्गम, जन्म, और सर्वहारा मंखों के चिरकालीन दलन-पीड़न-दमन की पृष्ठभूमि पर वह अपनी इस क्षण तक की सारी आप बीती (आत्मकथा) का प्रेक्षण-साक्षात्कार करता चला गया। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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