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________________ के कारण, उसके पिता की आजीविका चली गई । फलतः पिता ने उसे घर से निकाल दिया। वह नितान्त अनाथ, सर्वहारा हो गया। उसने महाश्रमण महावीर की करुणा, और प्राणिमात्र के अनन्य शरणदाता और वल्लभ के रूप में ख्याति सुनी थी। सो भटकता हुआ वह नालन्दा पहुंचा, और वहीं महावीर से उसका प्रथम मिलन हुआ । ____ इस बिन्दु से लगाकर, महावीर से उसके अन्तिम विदा लेने तक के छह वर्ष के काल को, मैंने जैनागम की गोशालक-कथा के आधार पर ही अपनी मौलिक सृजनात्मकता के साथ लिखा है । उसके व्यक्तित्व का जो विज़न (साक्षात्कार) मेरे भीतर स्वतः आकार ले रहा था, उसके उपोद्घात के लिये उसकी आरम्भिक जैन कथा ही नितान्त उपयुक्त थी। : महावीर से प्रथम साक्षात्कार होते ही, प्रभु की 'सद्य विकसित कमल जैसी आँखों' ने उसे सदा के लिये वशीभूत कर लिया था। यह मानो जीव पर शिव की अचूक मोहिनी का आघात था। इसने क्षण मात्र में ही गोशालक को महावीर की चेतना के साथ तदाकार और अभिन्न कर दिया था। वह तो जन्म से ही अनगारी, बेघरबार यायावर मंख भाटों का बेटा था। सो घर तो यों भी उसने जाना ही नहीं था। फिर जब प्रसंगात् उसके पिता ने उसे निकाल दिया, तो वह अन्तिम रूप से अनाथ, अशरण और अनागार हो गया। जगत् उसके लिये शून्य हो गया। अपने अन्तिम अकेलेपन में वह अवश छूट गया। अपना कहने को अब उसका संसार में कोई बचा ही नहीं था। कोई संदर्भ, कोई जुड़ाव या मुक़ाम ( Belonging ), कोई हीला-हवाला उसका नहीं रह गया था। ऐसी ही आत्मा महावीर के प्रति अन्तिम रूप से समर्पित हो सकती थी। भगवान जब किसी को पूरी तरह लेना चाहते हैं, तब जगत् से उसकी जन्मनाल काट कर उसे चारों ओर से निपट अकेला कर ही देते हैं। इस चेतना-स्थिति के कारण ही गोशालक महावीर से पहली मुलाकात के क्षण में ही, अन्तिम रूप से उनके साथ जैसे तद्रूप हो गया था। इसी से वह प्रभु के तपस्याकाल के सारे उपसर्गों, आक्रांतियों, कष्टों और यातनाओं में विवश भाव से भागीदार हो कर रहा। जब संसार में उसके जीने का कोई कारण बचा ही नहीं था, तो महावीर को ही उसने जीने के एक अटल कारण के रूप में स्वीकार लिया था। कष्ट कितना ही क्यों न हो, हर क्षण मृत्यु से गुजरना ही क्यों न पड़े, फिर भी महावीर के भीतर और संग जीते चले जाना ही उसके लिये एकमात्र अनिवार्य नियति रह गयी थी। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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