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________________ वस्तुतः भारतीय विद्या के विदेशी शोध-पण्डितों ने ही गोशालक के विधायक व्यक्तित्व, और उसके दर्शन की सकारात्मक उपलब्धि को अधिकतम पुनर-अनावरित (Rediscover) करके, उसके व्यक्तित्व और कृतित्व की एक अचूक प्रतिवादी शक्ति के रूप में भव्य स्वीकृति दी है। खास कर विख्यात इण्डोलाजिस्ट डा. बाशम का ग्रंथ "आजीवकाज' (AJEEVKAS) इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। . 'अनुत्तर योगी' के पात्रों में मक्खलि गोशालक गिनेचुने प्रमुख पात्रों में से एक अत्यन्त विशिष्ट और महत्वपूर्ण पात्र हो सका है। उस काल की उत्क्षिप्त प्रतिवादी शक्तियों के प्रतिनिधि के रूप में उसका चरित्र और व्यक्तित्व बहुत ऊर्जस्वल है, और इतिहास की विपथगामी वाम शक्ति के विस्फोट का वह एक पुंजीभूत विस्फूर्जन और मूर्तिमान स्वरूप है। इसी कारण उसके सांगोपांग चरित्र की तहों तक जाने के लिये, मैं उसके तमाम प्रामाणिक स्रोतों का गहराई से अध्ययन और मन्थन शरू से ही बराबर करता जा रहा था। तत्सम्बन्धित स्वदेशी और विदेशी तमाम प्राप्त साहित्य को यथाशक्य उलटा-पलटा था। फलतः उसकी एक नितान्त तटस्थ और तद्गत इमेज मुझ में स्वतः उभरती चली गई थी। किसी भी पूर्वग्रही अभिनिवेश से मैं ग्रस्त न हो सका था। यही कारण है कि मैं 'अनुत्तर योगी' में उसका एक सर्वनिरपेक्ष और स्वतंत्र व्यक्तित्व आलेखित करने में किसी क़दर सफल हो सका हूँ। बुद्ध और महावीर की महत्ता या किसी भी विदेशी आकलन की ऐकान्तिकता से मैं बाधित न हो सका है। मेरी कृति में भी अन्ततः वह बेशक महावीर के एक भयंकर विरोधी और प्रतिद्वंद्वी के रूप में ही घटित हुआ है। वह होने में ही उसकी सार्थकता है । और तथ्यात्मक दृष्टि से यह एक हक़ीक़त भी है। फिर भी महावीर की तमाम प्रभुता के बावजूद, उसके व्यक्तित्व को मैंने केवल महावीर या बुद्ध के झरोखे से नहीं देखा है। उसे अपनी स्वाधीन इयत्ता (आयडेण्टिटी) में पूर्णता के साथ, एक वाम शक्ति-पुरुष के रूप में सहज ही प्राकट्यमान (मैनीफेस्ट) में होने दिया है। मैंने कोई निजी हस्तक्षेप नहीं किया है, उसे महासत्ता में से स्वयम् ही निसर्गतः आविर्भूत होने दिया है। ___ 'अनुत्तर योगी' में सब से पहले वह द्वितीय खण्ड में सामने आता है । वह स्वभाव से और जन्मजात ही विद्रोही प्रकृति का था । सुन्दर सुकुमार था, लेकिन अपने दलित वर्ग, अकुलीन वंश, और अपनी परम्परागत अपमानजनक आजीविका के निरन्तर आघातों से अन्दर में वह बहुत कटु-कठोर, और घृणा से कुण्ठित हो गया था। यायावर मंख-भाटों की जघन्य वृत्ति से उसका हृदय बहुत हताहत और विषाक्त हो गया था। सो अपने अन्नदाता अभिजात भद्रों की भौण्डी तस्वीरें बनाने, तथा उनकी कुत्सा को नग्न करने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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