SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 379
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७ झूठ को नंगा करके, तमाम स्थापित वादों को नकार दिया। उनकी सड़ीगली जड़ों को झंझोड़ कर उच्छिन्न कर दिया। एक विराट् नकार की विस्फोटक आवाज़ से सारे आर्यावर्त की पृथ्वी के गर्भ दहलने लगे । ये विद्रोही इस काल नवयुगीन तीर्थंकर या तीर्थकों के रूप में ख्यात हुए । इनमें छह तीर्थक् प्रमुख माने गये हैं । इन्हीं छह तीर्थकों में शाक्यपुत्र गौतमबुद्ध और निगण्ठ नातपुत महावीर की भी गणना होती थी । इनमें सर्व प्रथम तीर्थंकर महावीर ही पूर्णत्व को उपलब्ध हुए, यह एक इतिहास - प्रमाणित तथ्य है । उन्होंने ही उस युग के प्रचण्ड नकार को सकारों में परिणत करके विधायक जीवन-दर्शन और मुक्तिमार्ग लोक को प्रदान किया । उनकी कैवल्य-प्रभा ने प्रकट होकर स्वयम् ही उनकी सर्वोपरि प्रभुता और शक्तिमत्ता को लोक में उजागर कर दिया । प्रस्तुत खण्ड के पाँचवें अध्याय में, जब भगवान विहार करते हुए फिर श्रावस्ती आये, तो संयोगात् उस काल के चार प्रमुख क्रान्तिकारी तीर्थक् एक साथ ही तीर्थंकर महावीर के समवसरण में उपस्थित हुए : आर्य पूर्ण काश्यप, आर्य अजित केश-कम्बली, आर्य प्रक्रुध कात्यायन और आर्यं संजय वेलट्ठि पुत्र । ये चारों ही सनातन आर्य धर्म की मृतप्राय परम्परा के ध्वंसक थे । इन चारों ने ही सारे प्रस्थापित वादों और धर्मों को नकार कर स्वतंत्र चर्या अंगीकार कर ली थी, अपना स्वतंत्र दर्शन तथा मुक्तिमार्ग अपने लिये रच लिया था, और उसी का प्रवचन वे लोक में करते फिर रहे थे । ( नकार महावीर की धर्म-पर्षदा में वे महावीर को चुनौती देकर उनसे वाद करने आये थे : यानी उन्हें नकार कर उनका प्रतिवाद करने आये थे । श्रीभगवान की कैवल्य प्रज्ञा तो मूलतः ही अनैकान्तिक थी । अनेकान्त में अनावश्यक हो जाता है । क्योंकि सापेक्षतया और यथास्थान उसमें नकार और स्वीकार दोनों का समावेश ही सम्भव है । श्रीभगवान ने मुक्त हृदय से वात्सल्य और विनयपूर्वक इन सब तीर्थंकों का स्वागत किया । उनकी स्वतंत्र चेतना, प्रज्ञा और प्रखर सत्यनिष्ठा का प्रभु ने जयगान किया । प्रकारान्तर से उन्हें अपने ही समकक्ष माना । फिर भी हर तीर्थक ने भगवान को चुनौती दी कि वे महावीर का प्रतिवाद करने और उन्हें नकारने आये हैं। उन्होंने प्रश्न उठाये, तर्क किये । भगवान ने उनके तर्कों का काट नहीं किया । प्रतिप्रश्न करके ही, उनके प्रश्नों को व्यर्थ कर दिया । फलश्रुति में हर तीर्थक् को अनायास एक अतलगामी समाधान स्वतः ही प्राप्त हो गया । भगवान ने उन्हें पराजय बोध न होने दिया : अन्ततः उन सब को 'जयवन्त' कह कर उद्बोधित किया । सबको अपनी कैवल्य-प्रभा की निःसीम विराट् भूमा में आत्मसात् कर लिया। एक-एक करके हर तीर्थक् अनायास मौन भाव से विनत होकर साधुप्रकोष्ठ में उपविष्ठ होते चले गये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy