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उस युग के विस्फोटक असन्तोष को मानो जैसे अन्तिम नहीं, बल्कि अनन्त उत्तर मिल गया । यह प्रसंग बहुत महत्वपूर्ण और युगान्तरकारी रूप में घटित होता है।
आगम और इतिहास में उस काल की भारतीय प्रतिवादी शक्तियों के प्रतिनिधि के रूप में उपरोक्त छह तीर्थ कों का ही उल्लेख एकत्र मिलता है। लेकिन आजीवक मत के प्रवर्तक मक्खलि गोशालक' का नाम इस पंक्ति में दस्तावेज़ नहीं पाया जाता। हाँ, अलग से उसके व्यक्तित्व और कृतित्व का लेखा-जोखा सभी प्रामाणिक स्रोतों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। सच पूछिये तो महावीर और बुद्ध के बाद उस काल के विद्रोही क्रान्तिकारियों में गोशालक का व्यक्तित्व ही सबसे अधिक शक्तिमान, प्रभावशाली और प्रभाकर दिखायी पड़ता है । वस्तुतः भारतीय स्रोतों से उपलब्ध सामग्री में उसके साथ पूरा न्याय नहीं हो सका है। उसके विलक्षण 'डायनमिक' योगदान को काफ़ी हद तक दबा दिया गया है । उसकी कोई विधायक स्वीकृति सम्भव ही न हो सकी, जब कि महावीर और बुद्ध की परम्परा के अलावा, गोशालक के आजीवक-सम्प्रदाय की परम्परा ही देर तक टिकी रह सकी थी। ___जैन और बौद्ध आगमों में गोशालक के विकृत और विद्रूप पक्ष की तस्वीर को ही अधिक उभारा गया है। क्योंकि महावीर और बुद्ध का सबसे प्रचण्ड विद्रोही और विरोधी वही था। उसने श्रमण धर्म के त्यागमार्ग के ठीक विरोध में, चारवाक्, वृहस्पति और ग्रीक एपीक्यूरस की तरह ही भोग-मार्ग को बड़ी दृढ़ और सशक्त बुनियाद पर स्थापित किया था। उसने अपने चिर यातना-ग्रस्त जीवन के कटु अनुभवों से यही सत्य साक्षात् किया था, कि सृष्टि-प्रकृति और मनुष्य का जीवन एक अनिवार्य अटल नियति से चालित है । नियति द्वारा नियोजित एक क्रमबद्ध पर्यायों के सिलसिले से गुज़र जाने पर, एक दिन ठीक नियत क्षण आने पर मुक्ति आपोआप ही घटित हो जाती हैं। नियति ही सर्वोपरि-सत्ता और शक्ति है, वही अन्तिम निर्णायक है । सो मुक्तिलाभ के लिये पुरुषार्थ और पराक्रम व्यर्थ है। कोई पुरुष नहीं, पुरुषकार नहीं, पुरुषार्थ नहीं, कोई कर्तृत्व कारगर नहीं। तब व्यर्थ ही तप-त्याग करके आत्मा का पीड़न क्यों किया जाये ? जीवन को तलछट तक और भरपूर भोगो, खाओ-पिओ, मौज उड़ाओ : चरम सीमा तक-पान (सुरापान), गान-तान, नृत्य, पुष्प, विलास, भोगविलास और युद्ध करो। जीवन को भोग में ही सार्थक और परिपूरित करो, छोर पर मुक्ति तो खड़ी ही है, उसकी चिन्ता क्या ? उसके लिये खटना क्यों ?
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