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________________ ३५ श्रावस्ती के उस समवसरण में तीर्थंकर महावीर स्वयम् केवल एक वीतराग पारद्रष्टा के रूप में इस सत्यानाश के साक्षी, द्रष्टा और स्रष्टा के रूप में सम्मुख आते दिखाई पड़ते हैं । उनकी कैवल्य-प्रभा के त्रिलोकत्रिकालवर्ती प्रकाश में ही मानो इतिहास का यह सारा आद्योपान्त नाटक अपनी समग्रता में घटित होता है । इसी समवसरण में कोशल और साकेत के ही नहीं, तमाम समकालीन आर्यावर्त के सर्वोपरि धन कुबेर अनाथ - पिण्डक और मृगार श्रेष्ठी भी भगवान के सामने उपस्थित होते हैं । सर्वग्रासी सम्पत्ति - स्वामित्व के वे प्रतिनिधि हैं । वे मानो अपनी अकूत सम्पत्ति और दान से भगवान को भी खरीद लेने आये है । प्रभु के साथ उनका लम्बा सम्वाद चलता है । उसमें प्रभु उनकी आसुरिक स्वार्थी, सर्वस्वहारी कांचन - लिप्सा का घटस्फोट करके उन्हें ध्वस्त- पराजित कर देते हैं। मानो कि भगवान के आगामी युगतीर्थ ( हमारा समय ) में होने वाले वणिक-वंश के मूलोच्छेद का उस दिन की धर्म-सभा में ही मंगलाचरण हो जाता है । इस प्रकार श्रावस्ती का वह समवसरण त्रिकालिक इतिहास के अनावरण और घनस्फोट का एक अतिक्रान्तिकारी सीमान्तरण सिद्ध होता है । बर्बर उपभोक्ता सत्ता- सम्पत्ति स्वामियों के इतिहास - व्यापी सर्वस्वहारी षड्यंत्र का उस दिन जैसे अन्तिम रूप से पर्दाफ़ाश हो जाता है। लेकिन प्रभु तो सर्व के समदर्शी, समानभावी, वीतराग आत्मीय थे । उनके मन में तो सर्वहारी, सर्वस्वहारी और सर्वहारा किसी के प्रति राग-द्वेष या पक्षपात नहीं था । केवल महासत्ता के इतिहासगत अनिवार्य तर्क और विधान का अनावरणकारी दर्शन मात्र उन्होंने अपनी कैवल्य-प्रभा में कराया था । उनकी मौलिक स्थिति तो सर्वदर्शी, वीतराग, अकर्त्ता की ही थी । पर मानो उनका वह स्वयम्भू ज्ञान तेज ही, जीवन और कर्म के स्तर पर परम कर्तृत्व-शक्ति के रूप में वाक्मान होता है । और प्रभु के श्रीमुख से महासत्ता स्वयम् ही जैसे उदघोषणा करती है, कि यदि सत्ता - सम्पत्ति-स्वामी अपने सर्वभक्षी अधिकार - मद का त्याग नहीं करते हैं, तो प्रभु स्वयम् अपने आगामी युगतीर्थ में जैसे उनसे उनके ये झूठे अधिकार छीन लेगें, और उस महाशक्ति के अतिक्रान्तिकारी विस्फोट द्वारा, लोक में स्वतः ही सर्वहारा की प्रभुता स्थापित हो जायेगी । तब भद्र नहीं, शूद्र राज्य करेंगे। तब मिथ्या का मायावी राज्य समाप्त होकर, सत्य का सर्वत्राता साम्राज्य स्थापित होगा । और अन्ततः प्रभु उपसंहार में मरण के तट पर खड़े सर्वहारा प्रसेनजित को आश्वासन देते हैं, कि वह चाहेगा तो मृत्यु में भी महावीर उसके साथ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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