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________________ ३४ गया था । फिर भी उसकी लम्पटता का अन्त नहीं था । उसके अन्तःपुर सैकड़ों अपहरिता कुमारियों और सुन्दरियों से भरे पड़े थे। पश्चिमी सीमान्त के गान्धार गणतन्त्र की तेजोमती बेटी कलिंगसेना वत्सराज उदयन की प्रियतमा थी । उसके प्यार की हत्या करके, उसे भी अपनी धाक से वह बलात् ब्याह लाया था । उसने मालाकार कन्या मल्लिका के असामान्य रूपसौन्दर्य से मोहित होकर बलात् उससे ब्याह कर, उसे कोशलदेश की पट्टfert बना दिया था । लेकिन शूद्र कन्या होते हुए भी, सर्वहारा वर्ग की यह बेटी सारे आत्मिक गुणों की खान थी । उसके सुन्दर शरीर से भी अधिक सुन्दर थी उसकी आत्मा । उसने अपने सतीत्व, शील, निःशेष समर्पण और सेवा से कापुरुष अत्याचारी व्यभिचारी पति के बर्बर हृदय को जीत कर उसे चरणानत कर दिया था । एक ओर भद्र, कुलीन, अभिजातवर्गीय प्रसेनजित था, जो शोषण -पीड़न, बलात्कार की आसुरी शक्तियों का प्रतीक था, तो दूसरी ओर शोषित-दलित शूद्र सर्वहारावर्ग की बेटी मल्लिका थी, जो आत्मा के सारभूत सौन्दर्य का जीवन्त विग्रह थी । चतुर्थ अध्याय में सत् और असत्, तमस् और प्रकाश, सुर और असुर वर्ग के इस द्वंद्व का ही ठीक जीवन के स्तर पर चित्रण हुआ है । प्रसेनजित ने अपनी सैनिक सत्ता के आतंक के बल पर ही कपिलवस्तु के गणतंत्र की एक बेटी को ब्याह कर जन-शक्ति को पद- दलित कर देना चाहा था । लेकिन कपिलवस्तु के शाक्यों ने चतुराई बरती । उन्होंने अपनी एक स्व- औरस जात दासी - पुत्री को धोखे से शाक्य - कन्या कह कर प्रसेनजित को ब्याह दिया था । उसका पुत्र हुआ विडुढभ, जो शाक्यों का दासी-जात दलितवीर्य भागिनेय था । मानो कि उसके रूप में प्रभु वर्ग के वंशोच्छेद के लिये ही, सर्वहारा वर्ग की विपथगामी विद्रोही शक्ति ने अवतार लिया था । कथाप्रसंग ऐसा मोड़ लेता है, कि विडुढभ के सामने प्रसेनजित और शाक्य, दोनों ही अभिजात कुलीनों के षड्यंत्र का भेद खुल जाता है । तब वह सत्यानाश का ज्वालामुखी होकर उठता है, और उसके प्रलयंकर क्रोध की फूत्कार एक ओर प्रसेनजित का सर्वनाश कर देती है, तो दूसरी ओर रातोंरात वह सारे शाक्य - वंश को अपनी तलवार के घाट उतार देता है । इस प्रकार इस अध्याय में सर्वहारा दलित वर्ग और प्रभुवर्ग का चिरकालीन संघर्ष आपोआप ही चित्रित होता है, और अपनी ही जगाई हिंसा- प्रतिहिंसा की आग में, दोनों ही वर्गों के प्रतिनिधि जल कर भस्म हो जाते हैं । शाक्यों का वंश - विनाश करके लौटता हुआ विडुढभ भी राह में एक नदी पार करते हुए सैन्य सहित डूब कर स्वाहा हो जाता है । इतिहास के इस क्रिया-प्रतिक्रियाजनित दुश्चक्र का इस अध्याय में अनायास ही नितान्त, वास्तविक और जीवन्त चित्रण हो सका है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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