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लिखता था। अब रिवाज़ यह हो गया है, कि कृतिकार भूमिका नहीं लिखता : मानता है कि भूमिका लिखना गैरज़रूरी है। जो कथ्य है, वह रचना में रचा या कहा जा चुका है : उसे भूमिका में अलग से कहने की ज़रूरत नहीं। वह एक प्रकार का आरोपण है, पाठक या गृहीता भावक की समझ पर अविश्वास करना है। मेरे मन ये दोनों ही रूढ़िगत रिवाज़ हैं। और मैं किसी चलन या रिवाज का कायल नहीं : न कभी था, न हो सकता है।
बर्नार्ड शॉ ने अपने छोटे-छोटे नाटकों की भी, अपनी कृति से कई गुनी ज्यादा बड़ी भूमिकाएँ लिखी हैं। आज वे साहित्य की एक महान धरोहर हो गई हैं। उसका एक गहरा कारण है, जिसे समझना होगा। जैसा कि ऊपर बता चुका हूँ, कोई भी मौलिक रचनाकार किसी उपलब्ध दर्शन, धारण या कॉन्सेप्ट को सामने रखकर रचना नहीं करता-कर सकता नहीं। क्योंकि रचना कोई बौद्धिक उपक्रम नहीं है। चिन्तन्, दर्शन या अवधारणा उसका लक्ष्य नहीं। रचना में सत्ता, सृष्टि, जगत और जीवन का एक आत्मिक सम्वेदनात्मक और अनुभूति-मूलक ग्रहण और साक्षात्कार ही होना चाहिए। लेकिन रचना हो जाने पर, उसमें से फलश्रुति के रूप में दर्शन, चिन्तन्, मूल्यान्वेषण और परिकल्पन (कॉन्सेप्ट) स्वतः उत्स्फूर्त होकर हमारे सामने आते हैं। उससे भावक को परितोष, समाधान, द्वंद्व-विसर्जन, मार्ग-दर्शन और तर्पण का सुख अनायास मिलता है। रचना को पढ़ते हुए ही, गृहीता भावक की अन्तश्चेतना में आपोआप ही ये सारी चीजें नवोन्मेष और नव्य विकास के कंमलों की तरह प्रस्फुटित होती चली जाती हैं।
रचना सम्पन्न हो जाने पर, रचनाकार ही अपनी रचना की अन्तरिमाओं ( Interiorities') का सर्वप्रथम साक्षी, और गहिरतम अवबोधक होता है। रचना में अनायास जो रहस्य खुले हैं, जो सत्य प्रकाशित हुए हैं, उनका वहीं निकटतम पारद्रष्टा और विश्वसनीय परिद्रष्टा होता है । क्योंकि रचना उसकी अपनी ही आत्मा की प्रसूता आत्मजा होती है। जैसे जनेत्री माँ ही अपनी सन्तान के समूचे भीतर-बाहर को अधिकतम समझ पाती है, उसी प्रकार एक कृतिकार ही अपनी कृति के अनन्त रहस्यों का सम्भवतः सबसे अधिक गहरा अवबोधक और अन्तर-ज्ञानी होता है। मेरा ख्याल है कि जो रचनाकार जितना ही अधिक गहनगामी और असामान्य होता है, अपनी रचना की भूमिका लिखना उसके लिये उतना ही अधिक अनिवार्य तक़ाजा हो उठता है। बर्नार्ड शॉ अपने वक्त में जी कर भी, उससे सीमित न हो सके थे, उसके अनुसारी न हो सके थे। उन्होंने अपने वक्त की हदों को तोड़ कर, अवबोधन के नये क्षितिज और वातायन खोले थे। इसी कारण अपने पाठक के साथ पूर्ण तादात्म्य और सायुज्य स्थापित करने के लिये, उन्हें अपनी अतिक्रान्तिकारी रचनाओं की भूमिका लिखना अनिवार्य लगा था ।
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