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________________ २८ लेता है। उसका देहकाम उद्भिन्न उत्फुल्ल अम्भोज की तरह उत्क्रान्त होकर, अपने परम पुरुष की परात्पर देह में रमणलीन होने के लिये व्याकुल हो उठता है। तब चरम दैहिक (कामिक) विरह की यौगिक समाधि की नोक पर, आम्रपाली के भीतर से बन्द कक्ष में, नीलबिन्दु से प्रस्फुटित नील प्रभा के भीतर से अनायास वहाँ महावीर प्रकट हो उठते हैं। सदेह मिलन की उसकी परात्पर महावासना के उत्तर में, प्रभु उसके सम्मुख अपने आत्मकाम परमकाम शरीर को अव्याबाध रूप से मुक्त उत्सगित कर देते हैं । रूप-लावण्य-सौंदर्य के उस महाकाम समुद्र-पुरुष का वह पूर्णकाम, अस्पर्श, परमोष्म आलिंगन पाकर आम्रपाली महाभाव की चरम-स्पर्श समाधि में मूच्छित हो जाती है। अनन्तर सहस्रार के मेहासुख-कमल की नित्य मैथुनी शैया में शिव-शक्ति का परम मिलन-सायुज्य धटित होता है । साक्षात्कार होता है, कि शिव और शक्ति दो नहीं एक ही हैं। वह एकमेव आत्म-पुरुष ही सृष्टि के प्राकट्य के लिये शिव-शक्ति की द्वैत-लीला में रम्माण होता है । और ठीक उसी अविभाज्य मुहूर्त में, वह अपने आत्मिक एकत्व और अनन्यत्त्व की संभोग-समाधि में भी निरन्तर तल्लीन रहता है। ये सारी चीजें रचनाकार के लिये पूर्व-निर्धारित या पूर्व-गृहीत परिकल्पनाएँ (कॉन्सेप्ट) नहीं होती हैं। कॉन्सेप्ट होता है-बुद्धि-मानसिक परिकल्पन । रचनाकार प्रथमतः कोई कॉन्सेप्ट बना कर नहीं चलता। मूलतः ये सारी चीजें कोई बौद्धिक कॉन्सेप्ट हैं भी नहीं। ये सत्ता में विद्यमान प्रकृत मुक़ाम या मौलिक संरचनाएँ हैं। ये सृष्टि के गर्भगृही देवालय में नित्य शाश्वत अनादिनिधन-रूप से बिराजमान हैं। रचनाकार अपने संवेदन की सृजन यात्रा में, रचनाप्रक्रिया के दौरान ही अनायास अनजाने इनसे गुज़रता है, और इनका अनावरण-आविष्कार करता चला जाता है। कुण्डलिनी-शक्ति, षट्चक्र आदि कोई बौद्धिक, काल्पनिक या मात्र भावनात्मक अवधारणाएँ नहीं। ये साक्षात्कृत सनातन तत्त्व और सत्वभूत नित्य सद्भूत सत्य और तथ्य हैं। इनका अस्तित्व अमूर्त के भीतर होकर भी, हर मूर्त पदार्थ से ये अधिक ठोस, सघन, सभर और अक्षुण्ण हैं। .. आम्रपाली मानो मेरे शरीरान्तिक नाडीभंग के छोर पर, आद्याशक्ति माँ के रूप में, स्वयम् ही मेरे परित्राण को चली आई। मेरी और उसकी आत्मिक विरह-वेदना एकीभूत और तादात्म हो गयो और तब उस माँ ने मुझे अपने स्तन-द्वय के बीच की बिसतन्तु तनीयसी गोपन गहराई में संगोपित करके, आत्म-साक्षात्कार के अथवा परम मिलन के देवालय में पहुँचा दिया । अन्ततः आत्मा-माँ ही रह गई, मैं न रह गया । । ० ० ० :: साहित्य-जगत् में भी प्रायः चीजें रूढ़ि और रिवाज से चलती हैं। पुराने जमाने में यह रिवाज़ था कि हर कृतिकार अपनी कृति की भूमिका अवश्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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