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________________ २७ नहीं। उसके बिना निरन्तर मैथुन का आनन्द-भोग उपलब्ध नहीं हो सकता। काम विकृत हो गया है कि युद्ध है, गृह-युद्ध का दानव ललकार रहा है। उसका निर्दलन और मूलोच्चाटन करने के लिये रक्त-क्रान्ति अनिवार्य है। रक्त-क्रान्ति अर्थात्--रक्त का रूपान्तर। विकृत हो गये रक्त का अतिक्रमण और संशोधन करके, विशुद्ध पूर्णकाम रक्त द्वारा सृष्टि की मांगलिक और सम्वादी रचना का आयोजन । वर्तमान जगत् के गृहयुद्ध और रक्तक्रान्ति की भी तात्विक भूमिका यही है : यही हो सकती है। ____ यदि अधिकार वासना बनी है, यदि वैशाली और आम्रपाली व्यक्ति, वर्ग और जनपद विशेष के स्वामित्व की वस्तु बनी रहेगी, तो काम का उत्थान और ऊर्वीकरण सम्भव नहीं। यदि वह न हो, तो सर्वनाश और प्रलय अनिवार्य है। सत्यानाश होकर ही रहेगा। सत्यानाश (प्रलय) के बिना, सत्यप्रकाश (नवोदय) सम्भव न हो सकेगा। इसी प्रलयंकर भविष्यवाणी पर चतुर्थ खण्ड का प्रथम अध्याय समाप्त हो जाता है। ___प्रभु के परात्पर सौन्दर्य की झलक मात्र पाकर आम्रपाली चरम वियोगव्यथा की परान्तक समाधि में निमज्जित हो जाती है। उसे जैसे किसी पार्थिवेतर सत्ता-आयाम में निष्क्रान्त या निर्वासित हो जाना होता है। वहाँ उसके परम पुरुष के लिये, उसकी विरह-व्यथा पराकाष्ठा पर पहुँचती है। फलतः उसके मूलाधार में भूकम्प होता है। उसके विक्षोभ से मूलाधारस्थ उसकी कुण्डलिनी-शक्ति सर्पिणी की तरह फूत्कार कर जाग उठती है। कुण्डलिनी ही है सृष्टि की आद्या चिति-शक्ति। अपने परात्पर प्रीतम परशिव सदाशिव परम पुरुष के मिलन की चरमोत्कण्ठा से, वह अधिकाधिक पागल-विकल होती चली जाती है। विक्षुब्ध विक्रुद्ध सर्पिणी की तरह बेतहाशा लहराती हुई यह कुण्डलिनी आत्म-शक्ति, उसके मेरु-दण्ड में अवस्थित षटचक्रों का उत्तरोत्तर भेदन करती चली जाती है। इस अन्तर्मखी ऊर्ध्वयानी यात्रा में, विभिन्न मनोकामिक (मनोवैज्ञानिक) भाव-संवेदनी शक्तियों के केन्द्रभुत विभिन्न षट्चक्रों का भेदन बलात् होता जाता है। अन्त पर पहुँचते-पहुँचते उसकी विरहावस्था इतनी आत्मविस्मरणकारी हो जाती है, कि उसका अहंगत 'मैं' या आत्मभाव विलुप्त हो जाता है। उसके सारे वस्त्र-अलंकार, कंचुकि-बन्ध, नीवि-बन्ध टूटते चले जाते हैं। सारे अहंगत कोष एक-एक कर उतरते चले जाते हैं। आज्ञाचक्र में पहुंचने पर वह अपने स्वरूप में मानों ध्यानावस्थित तल्लीन हो जाती है। यहीं उसे नीलबिन्दु का दर्शन होता है। परा प्रीति और परा रति का नील प्रकाश उसकी सुनग्ना काया को चारों ओर से आवरित कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003848
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages396
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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